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________________ - यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - कटाक्ष किया है। 'दाढ़ी-मूंठ मुँडाने की फैशन, शीर्षक वाले अपने प्रवचन में। दाढ़ी-मूंछ साफ करवाकर रखने की परम्परा किस प्रकार शुरू हुई ? इस पर भी विचार प्रकट किया है। इसमें आपने यह भी स्पष्ट . किया है कि मानव की पहचान का मुख्य चिह्न दाढ़ी-मूंछ ही है और उनके रखने का रिवाज बहुत प्राचीनकाल से चला आया है। उसको सफाचट कर देने से मनुष्य का अभिमान रूपी दूसरा कोई चिह्न नहीं रहता। अंत में आचार्यश्री ने फरमाया- 'विदेशियों की फैशन के गुलाम न बनकर अपने देशी मर्दानी रिवाज को अपनाना सीखो। विदेशियों की नकल नहीं, उनकी अक्ल सीखने की शक्ति भर कोशिश करो, तभी मर्द कहलाओगे।' (पृष्ठ १०८)। रूपसेन कुमार चरित्र पर इसी नाम से आप का प्रवचन मानवीय मूल्यों की स्थापना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस कथानक के आधार पर कुछ काल्पनिक दृष्टांत जोड़कर एक अच्छा प्रभावशाली उपन्यास तैयार हो सकता है, जो मानवीय मूल्यों की समुन्नति के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसी प्रवचन के अंत में अजैन शास्त्रों में बताए गए २८ नरकों का भी वर्णन किया गया है। अंत में आप ने प्रवचन का समापन करते हुए फरमाया है - “अनन्त दुःखसंसार: मोक्षाऽनन्तसुखः" अनन्त दुःखमय संसार है और अनन्त सुखमय मोक्ष है, इसलिए संसार-वासनाओं का त्याग करो। धर्माराधना के बिना सच्चा सुख नहीं मिल सकता और जन्म-मरण का फेरा नहीं मिट सकता। बस, प्राणिमात्र का यही ध्येय होना चाहिए और यही ध्येय उनको सफल-मनोरथ बनाकर शाश्वत धाम में विराजमान रहेगा।" (पृष्ठ १६५)। जब तक मन में काम, क्रोध, मद और लोभ विद्यमान है, तब तक पंडित और मूर्ख समान ही हैं। यह बात कही है आप ने अपने 'विद्या का अभिमान अच्छा नहीं प्रवचन में। यह कथन उस समय भी सत्य था, आज भी सत्य है और भविष्य में भी सत्य ही रहेगा। साधुविहार से होने वाले लाभों को स्पष्ट किया गया है - "साधु विहार से लाभ" नामक प्रवचन में। इस प्रवचन में आप ने रात्रिभोजननिषेध पर भ प्रकाश डाला है। उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार के सन्दर्भ से आप ने फरमाया - 'चींटी के खाने से बुद्धि का नाश, रतौंधी, मकड़ी के खाने से कोढ़ रोग, मक्खी के खाने से वमन, जूं के खाने से जलोदर, काँटा या करपा खाने से कंठ पीडा, व्यंजन (शाक भाजी) के साथ विच्छू खाने से तालु का विंध जाना, केश के खाने से स्वरभंग, इत्यादि अनेक हानिप्रद दोष रात्रि भोजन से पैदा होते हैं, जो शरीर-सम्पत्ति को बिगाड़ते देर नहीं करते। रात्रि-भोजन करने वाले मरकर घुग्घू, कौआ, बिल्ली, गिद्ध, साँभर, भंडूरा, साँप, बिच्छू और गोधा आदि नीच योनियों में पैदा होकर महादुःख भोगते हैं, अतः इस निकृष्ट कार्य को छोड़ देना चाहिए। (पृष्ठ १७०)। व्यसन-परिहार नामक प्रवचन में व्यसनों से होने वाली हानियों की ओर संकेत करते हुए व्यसनों से बचने के लिए मार्गदर्शन दिया गया है। माननीय शिक्षाएँ नामक प्रवचन में उन बातों पर प्रकाश डाला गया है, जो व्यक्ति के लिए उपयोगी हैं। दान का महत्त्व स्पष्ट किया गया है, इसी नाम के प्रवचन में। समय का सदुपयोग नामक प्रवचन में आप ने फरमाया है - "समय पुरुषों का सर्वस्व, जीवनधन और अमूल्य वस्तु है। जो मनुष्य समय को व्यर्थ खो देते हैं, उसके मूल्य को नहीं समझते, अंत में समय उनको बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट करता है। ऐसे पुरुष संसार में सफलता के बजाय पद-पद पर संकल्प-विकल्प में फँस जाते हैं। जो लोग संसार में आगे बढ़े और आदर्श हुए हैं, उन्होंने समय का मूल्य समझा था।" (पृष्ठ २१४)। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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