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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म . मतभेदों पर आधारित थे, इसकी हमें कोई प्रामाणिक जानकारी प्राप्त और प्रकाश, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४४नहीं होती है । इन गणों और अन्वयों की चर्चा के प्रसंग में एक २५३. महत्त्वपूर्ण चर्चा यह है कि कुछ अभिलेखों में यापनीय-नन्दिसंघ ऐसा २. ए. एन. उपाध्ये : जैन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और उल्लेख मिला है तो क्या इस आधार पर यह माना जाय कि नंदिसंघ प्रकाश, अनेकान्त वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६. यापनीय-परम्परा से सम्बन्धित था । पुन: नंदिसंघ के कुछ अभिलेखों में ३. जत्ता ते भंते ? जवणिज्ज (ते भंते ?) अव्वाबाहं (ते भंते ?)द्रविड़गण और 'अरुणान्वय' के भी उल्लेख मिलते हैं तो क्या हम यह फासुयविहारं (ते भंते ?)? माने कि द्रविड़ गण और अरुणान्वय का सम्बन्ध भी यापनीय संघ से सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज्ज पि मे, अव्वा वाहं पि मे, था ? यद्यपि इतना तो निश्चित है कि 'दर्शनसार' में जिन जैनाभासों की फासुयविहारं पि मे भगवई (लाडनूं), १०/२०६-२०७ चर्चा की गई है, उनमें यापनीय और द्रविड़ दोनों को ही सम्मिलित ४. किं ते भंते ! जवणिज्जं ? किया गया है - इसमें यह भी कहा गया है कि द्रविड़ संघ में स्त्रियों सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा इंदियजवणिज्जे य, को दीक्षा दी जाती थी इससे यह सम्भावना तो व्यक्ति की ही जा सकती नोइंदियजवणिज्जे य॥ है कि द्रविड़ संघ और यापनीय संघ दोनों स्त्री की प्रव्रज्या के समर्थक से किं तं इंदियजवणिज्जे ? थे और वे मूलसंघीय दिगम्बर-परम्परा जो स्त्री की दीक्षा का निषेध इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंदिय-चक्खिदिय-घाणिंदियकरती थी, से भिन्न थे । इसी कारण उनको जैनाभास कहा गया । जिभिदियफासिंदियाई निरुवहयाई वसे वर्दृति, सेत्तं सम्भावना यही है कि दोनों में पर्याप्त रूप से निकटता थी। प्रो० ढाकी इंदियजवणिज्जे ॥ से किं तं नोइदियजवणिज्जे? को तो मान्यता है कि द्रविड़ संघ का विकास यापनीय नन्दी-संघ से ही नो इंदियजवणिज्जे जं मे कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा नो हुआ होगा । उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिज्जे, सेत्तं जवणिज्जे । श्वेताम्बर स्रोतों से यह जानकारी भी मिलती है कि यापनीय - भगवई (लाडनूं), १०/२०८-२१० परम्परा गोप्य-संघ के नाम से भी जानी जाती थी। हरिभद्र के षड्दर्शन- ५. आयस्मंतं भगु भगवा एतदवोच - “कच्चि, भिक्खु, खमनीयं, समुच्चय की टीका में गुणरत्न लिखते हैं कि नाग्न्य लिंग और पाणिपात्रीय कच्चि यापनीयं, कच्चि पिण्डकेन न किलमसी" ति ? खमनीयं, दिगम्बर चार प्रकार के हैं - भगवा, यापनीयं, भगवा, न चाहं, भन्ते पिण्डकेन किलमामी" (१) काष्ठा संघ (२) मूलसंघ, (३) माथुर संघ और (४) ति। गोप्य संघ । - महावग्गो, १०-४-१६ १. काष्ठा संघ में चमरी गाय के बालों की पिच्छी रखी जाती ६. अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६. है। इसे भी दर्शनसार में जैनाभास कहा गया है । मूलसंघ और गोप्य ७. पूर्वोक्त, अनेकान्त, वर्ष २८, किरण १, पृ० २४६ संघ में मयूर-पिच्छी ग्रहण की जाती है । माथुर संघ निष्पिच्छिक है। ८. प्रो. एम. ए. ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर । इनमें प्रथम तीन अर्थात् काष्ठा, मूल और माथुर संघ के साधु बन्दर ९. अ- कालिका प्रसाद : बृहत् हिन्दी कोश (ज्ञानमंडल, वाराणसी) करनेवाले को 'धर्म वृद्धि' कहते हैं तथा स्त्री एवं सवस्त्र की मुक्ति को वि. सं. २००९, पृ. १०६८ स्वीकार नहीं करते । गोप्य-संघ के मुनि वन्दन करने वाले को 'धर्म- (ब) वामन शिवराम आप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोश (दिल्ली - १९८४) लाभ' कहते हैं तथा स्त्री मुक्ति और केवली मुक्ति को स्वीकार करते हैं। पृ. ८३४ यह गोप्य-संघ यापनीय-संघ भी कहा जाता है। १०. वामन शिवराम आप्टे-वही, पृ० ८३४ सन्दर्भ ११. आवश्यकनियुक्ति (हरभिद्रीयवृत्ति) में उपलब्ध मूलभाष्य गाथा, १. a- Indian Antiquary, Vol. VII, p. 34 पृ०२१५-१६ b-H. Luders: E. IV; p338 १२. 'स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव इव संसारक्षयो भवति इति ज्ञापनार्थc- नाथूराम प्रेमी: जैन हितैषी, XIII पृ० २५०-७५ वच: यथोक्तम् यापनीयतंत्रे" - श्री ललितविस्तरा, पृ० ५७d- A. N. Upadhye : Journal of the University ५८, प्रका० ऋषभदेव केशरीमल संस्थान, रतलाम । of Bombay, 1956, I, VI pp 22ff, १३. उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य की टीका, पृ०, १८१. e. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास - द्वितीय संस्करण, १४. आवश्यक टीका (हरिभद्र कृत), पृ. ३२३ बम्बई १९५६, पृ० ५६, १५५, ५२१ १५. अ- थेरेहिंतो भद्दजसेहिंतो भारद्दायसगुत्तेहिंतो एत्थ णं उडुवाडियगण f. P.B. Desai : Jainism in South India, pp. 163- नाम गणे निग्गए । कल्पसूत्र (प्राकृतभारती, जयपुर संस्करण) 66 आदि । सूत्र, २१३ । g. ए. एन. उपाध्ये : जैन सम्प्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ (ब) थेरेहितो णं कामिड्ढिहितो कुंडलिसगोत्तेहिंतो एत्थ णं वेसवाडियगणे browondwonotonewboramotorditoriuddromidniwodriwood८७ ]idndindiadesisdudwoniuddrd-iridwarorarorobiomewords Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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