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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकान्य- आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म और ज्ञाताधर्मकथा में 'इन्द्रिय-यापनीय' और 'नो इन्द्रिय-यापनीय' को स्पष्ट करते हुए यही बताया गया है कि जिसकी इन्द्रियाँ स्वस्थ और नियन्त्रण में है तथा जिसका मन वासनाओं के आवेग से रहित एवं शान्त हो चुका है ऐसे नियन्त्रित इन्द्रिय और मनवाले व्यक्ति का यापनीय कुशल है। यद्यपि यहाँ 'यापनीय' शब्द इन्द्रिय और मन की वृत्तियों का सूचक है किन्तु अपने मूल अर्थ में तो यापनीय शब्द व्यक्ति की 'जीवन यात्रा' का सूचक है। व्यक्ति की जीवनयात्रा के कुशलक्षेम को जानने के लिए ही उस युग में यह प्रश्न किया जाता था कि आपका यापनीय कैसा है ? बौद्ध परम्परा में इसी अर्थ में यापनीय शब्द का प्रयोग होता था किन्तु जैन- परम्परा ने उसे एक आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया था। ज्ञाताधर्मकथा एवं भगवती में महावीर 'यात्रा' को ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधना से जोड़ा तो 'यापनीय' को इन्द्रिय और मन की वृत्तियों से । इस प्रकार निर्ग्रन्थ परम्परा में यापनीय शब्द का एक नया अर्थ लिया गया। प्रो० ए. एन. उपाध्ये यहाँ अपना मत व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि- "नायाधम्मकहाओ (शाताधर्मकथा) में 'इन्दिय जवणिज्जे' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यापनीय न होकर यमनीय होता है, जो यम् (नियन्त्रण) धातु से बनता है। इसकी तुलना 'थवणिज्ज' शब्द से की जा सकती है जो स्थापनीय शब्द के लिए प्रयुक्त होता है । इस तरह 'जवणिज्ज' का सही संस्कृत रूप यापनीय नहीं हो सकता । अतः जवणिज्ज' साधु वे हैं जो यम- याम का जीवन बिताते थे। इस सन्दर्भ में पार्थ प्रभु के उज्जाम- चातुर्याम धर्म से यम- याम की तुलना की जा सकती है।"" किन्तु प्रो० ए. एन. उपाध्ये का 'जयनिष्य' का यमनीय अर्थ करना उचित नहीं है। यदि उन्होंने विनयपिटक का उपर्युक्त प्रसंग देखा होता जिसमें 'यापनीय' शब्द का जीवनयात्रा के कुशल क्षेम जानने के सन्दर्भ में स्पष्ट प्रयोग है, तो सम्भवतः वे इस प्रकार का अर्थ नहीं करते । यदि उस युग में इस शब्द का 'यमनीय' के रूप में प्रयोग होता तो फिर पाली साहित्य में यापनीय शब्द का स्पष्ट प्रयोग न मिलकर 'यमनीय' शब्द का ही प्रयोग मिलता । अतः स्पष्ट है कि मूल शब्द 'यापनीय' ही है, यमनीय नहीं है। यद्यपि आगमों में आध्यात्मिक दृष्टि से यापनीय शब्द की व्याख्या करते हुए उसे अवश्य ही मन और इन्द्रिय की नियंत्रित या संयमित दशा का सूचक माना गया है । यापनीय शब्द की उपर्युक्त व्याख्याओं के अतिरिक्त विद्वानों ने उसकी अन्य व्याख्यायें भी देने का प्रयत्न किया है। प्रो० तैलंग के अनुसार यापनीय शब्द का अर्थ बिना ठहरे सदैव विहार करने वाला है" सम्भव है कि जब उत्तर और दक्षिण भारत में चैत्यवास अर्थात् मन्दिरों में अपना मठ बनाकर रहने की प्रवृत्ति पनप रही थी तब उन मुनियों को जो चैत्यवास का विरोध कर सदैव विहार करते थे यापनीय कहा गया हो । किन्तु इस व्याख्या में कठिनाई यह है कि चैत्यवास का विकास परवर्ती है, वह ईसा की चौथी या पाँचवीं शती में प्रारम्भ हुआ जब कि यापनीय संघ ईसा की दूसरी के अन्त या तीसरी शती के प्रारम्भ में अस्तित्व में आ चुका था । Jain Education International प्रो० एम० ए० छाकी पापनीय शब्द के मूल में यावनिक मानते हैं। उनके अनुसार सम्भावना यह है कि मथुरा में शक और कुषाणों के काल में कुछ यवन जैन मुनि बने हों और उनकी परम्परा यावनिक (यवन- इक्) कही जाती हो। उनके मतानुसार 'यावनिक ' शब्द आगे चल कर यापनीय बन गया है। यह सत्य है कि यापनीय परम्परा का विकास मथुरा में उसी काल में हुआ है, जब शक, हूण आदि के रूप में यवन भारत में प्रविष्ट हो चुके थे और मथुरा उनका केन्द्र बन गया था। फिर भी व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से यावनिक का यापनीय रूप बनना यह सन्तोषजनक व्याख्या नहीं है संस्कृत और हिन्दी शब्द कोशों में 'यापन' शब्द का एक अर्थ परित्याग करना या निष्कासित करना भी बताया गया है। प्रो० आप्टे ने 'याप्य' शब्द का अर्थ निकाले जाने योग्य, तिरस्करणीय या नीच भी बताया है" इस आधार पर यापनीय शब्द का अर्थ नीच, तिरस्कृत या निष्कासित भी होता है। अतः संभावना यह भी हो सकती है कि इस वर्ग को तिरस्कृत, निष्कासित या परित्यक्त मानकर 'यापनीय' कहा गया हो । वस्तुतः प्राचीन जैन आगमों एवं पाली- त्रिपिटक में यापनीय शब्द जीवन यात्रा के अर्थ में ही प्रयुक्त होता था 'आपका यापनीय कैसा है' इसका अर्थ होता था कि आपकी जीवन-यात्रा किस प्रकार चल रही है। इस आधार पर मेरा यह मानना है कि जिनकी जीवन-यात्रा सुविधापूर्वक चलती हो वे यापनीय है। सम्भवतः जिस प्रकार उत्तर भारत में श्वेताम्बरों ने इस परम्परा को अपने साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश में 'बोटिक' अर्थात् भ्रष्ट या पतित कहा; उसी प्रकार दक्षिण में दिगम्बर परम्परा ने भी उन्हें सुविधावादी जीवन के आधार पर अथवा उन्हें तिरस्कृत मानकर थापनीय कहा हो। इस प्रकार हमने यहाँ यापनीय शब्द की सम्भावित विभिन्न व्याख्याओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किन्तु आज यह बता पाना तो कठिन है कि इन विविध विकल्पों में से किस आधार पर इस वर्ग को यापनीय कहा गया था । बोटिक शब्द की व्याख्या यापनीयों के लिए श्वेताम्बर परम्परा में लगभग ८वीं शताब्दी तक 'बोडिय' (बोटिक) शब्द का प्रयोग होता रहा है।" मेरी जानकारी के अनुसार श्वेताम्बर - परम्परा में सबसे पहले हरिभद्र के ग्रन्थों में यापनीय शब्द का प्रयोग हुआ है ।१२ फिर भी यापनीय और बोटिक एक ही हैं ऐसा स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। हरिभद्र भित्र-भित्र प्रसंगों में इन दोनों शब्दों की व्याख्या तो करते हैं किन्तु ये दोनों शब्द पर्यायवाची है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं करते हैं। - 'बोडिय' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण बोटिक किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्य की टीका में बोटिक शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है - "बोटिकाश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन अर्थात् चारित्रिक विकलता के कारण मात्र मुण्डित बोटिक कहे जाते [ ७९ ]mas For Private & Personal Use Only ३ Gray www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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