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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - क्या हो सकता है। जुए के कारण राजा नल और दमयंती की जो स्थानांग सूत्र में भी मांसाहारी को नरकगामी बताया गया दुर्गति हुई वह किसी से छिपी हुई नहीं है। प्राचीन काल में एक है। इसी प्रकार आचार्य मनु के अनुसार-मांस का अर्थ ही है, मिथ्या धारणा यह थी कि यदि कोई जुआ खेलने के लिए जिसका मैं मांस खा रहा हूं वह अगले जन्म में मुझे खाएगा। यदि आह्वान करता है तो उसे ठुकराना नहीं चाहिए वरन् उसका मांस को मां और स रूप में लिखे तो उसका अर्थ होता है मुझे निमंत्रण स्वीकार कर जुआ खेलना चाहिए। खाएगा। आचार्य मनु का कथन इस प्रकार हैवर्तमान समय में जुए का प्रचलन अनेक रूपों में है। मांसभक्षयिताऽमुत्र, तस्य मांसमिहाझ्यहम्। अधिकारी वर्ग क्लबों में जुआ खेलते हैं। धनाढ्य अपने तरीके र एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।मनुस्मृति 5-55॥ से खेलते हैं और गरीब अपने तरीके से। कहने का तात्पर्य यह है कई लोग मांसाहार में अधिक पौष्टक तत्त्वों की बात कर कि जैसे-जैसे सभ्यता और संस्कृति का विकास हो रहा है, इसको खाने का समर्थन करते हैं, किन्तु यह उनकी मिथ्या वैसे-वैसे इस व्यसन का भी विकास हो रहा है। व्यक्ति स्वयं ही धारणा है वर्तमान अनुसंधानों से यह निश्चित हो गया है कि अपने विनाश के द्वार खोल रहा है। इस विषय पर और भी बहत मांसाहार से अधिक पौष्टिक तत्त्व शाकाहारी भोजन में है। साथ कुछ लिखा जा सकता है, किन्तु यहां इतना ही कहना पर्याप्त ही यह भी तथ्य सामने आया है कि मांसाहारी भोजन से अनेक होगा कि समझदारी इसी में है कि जुए को अपनाया ही नहीं असाध्य रोग भी उत्पन्न होते हैं इसलिए यह सहज ही कहा जा जाए। इस व्यसन से दूर ही रहना उचित है। सकता है कि मांसाहार धार्मिक दृष्टि से तो त्याज्य है ही, वैज्ञानिक (२) मांसाहार - महाभारत में कहा गया है कि मांस न पेड़ पर दृष्टि से भी इसका सेवन सदैव हानिप्रद है। इसलिए मांसाहार कभी भी नहीं करना चाहिये। मांसाहार सामाजिक नैतिक, धार्मिक लगता है और न भूमि में उत्पन्न होता है। यह प्राणिजन्य है, इसलिए त्याज्य है। वास्तविकता तो यह है कि यह भी एक । आर्थिक वैज्ञानिक आदि सभी दृष्टि से अनुपयुक्त है और स्वास्थ्य व्यसन ही है। एक बार जिस व्यक्ति को इसकी चाट लग जाती की दृष्टि से भी उपयुक्त नहीं है। है, वह इसके पीछे-पीछे लगा रहता है। व्यक्ति यह भूल जाता है (३) मद्यपान- शराब क्या है? सड़ा हुआ पानी, जिस पदार्थ से कि बिना हिंसा किए, किसी प्राणी के प्राण लिए मांस उपलब्ध शराब अर्थात् मदिरा बनायी जाती है उसे पहले सड़ाया जाता है। नहीं हो सकता। आचार्य मनु के शब्दों में जीवों की हिंसा के उसके पश्चात् मदिरा बनती है इसमें हिंसा भी है, मद्यपान एक बिना मांस उपलब्ध नहीं होता और जीवों का वध कभी स्वर्ग ऐसा व्यसन है। जो व्यक्ति की विवेक बुद्धि को नष्ट कर देता है। प्रदान नहीं करता जिस पदार्थ के सेवन से व्यक्ति की मानसिक स्थिति में परिवर्तन नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसा, मांसमुत्पद्यते क्वचित्। आता है, वह मद्यपान के अंतर्गत आता है। इस दृष्टि से इसके न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।48।। अनेक रूप हो सकते हैं। हम यहाँ उन सबका वर्णन नहीं करेंगे। समुत्पत्तिं च मांसस्य बधबन्धौ च देहिनाम्। मद्यपान से शरीर तो नष्ट होता ही है, मद्यपान करने वाले का धन प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।49॥ भी बरबाद होता है और घर का चैन भी बरबाद होता है। इसके जब जीव के वध के बिना मांस प्राप्त नहीं हो सकता तो विषय में कहा गया है कि मदिरा का प्रथम घूट मानव का मूर्ख फिर इसका त्याग करना ही उचित है। कारण कि हिंसाजन्य बनाती है, द्वितीय चूंट पागल बनाती है, तृतीय चूंट से वह दानव समस्त पाप भी लगते हैं, जो हिंसा करता है, उसे स्वर्ग मिल नहीं की तरह कार्य करने लगता है और चौथी बूंट से वह मुर्दे की सकता। हिंसक की दुर्गति ही होती है। आचार्य हेमचंद्र ने हिंसा भाँति भूमि पर लुढ़क पड़ता है मदिरा पान करने वाले वाला के फल बताते हुए लिखा है कि पंगपन कोढीपन. लला आदि व्यक्ति समझता है कि वह मदिरा पी रहा है। किन्तु वास्तविकता हिंसा के ही फल हैं इसके विपरीत यह है कि मदिरा व्यक्ति को पीती है। जब व्यक्ति पंगु-कुष्ठि-कुणित्वादि दृष्टवा हिंसाफलं सुधीः। मदिरापान का आदी हो जाता है तो वह धीरे-धीरे अनेक रोगों से निरागस्त्र सजन्तूनां हिंसां संकल्पतस्तजेत॥ योगशास्त्र 2/19॥ ग्रस्त हो जाता है और अंत में मृत्यु भी प्राप्त हो सकती है इस अर्थ में मदिरा धीमा विष भी है। amodeodidroidiwordwordwordwordwordworrordirado- ६१160mirroriabbrdwordromowordrowomdivoritorionirombord D:IGYANMAMALKHAND8.PM5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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