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________________ -यतीन्दसूरि स्मारक गत्य आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्महुए कहा गया है वायु (तनुवात) आकाश पर प्रतिष्ठित है। समुद्र द्वारा समर्थित है। परमाणु के दो भाग हैं--इलेक्ट्रोन और प्रोटोन। (घनोदधि) वायु पर प्रतिष्ठित है। पृथ्वी समुद्र पर प्रतिष्ठित है। इन दोनों के बीच में एक अवकाश विद्य त्रस स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित है। अजीव जीव पर प्रतिष्ठित समस्त पदार्थों में से यदि अवकाश को निकाल दिया जाए तो है। जीव कर्म पर प्रतिष्ठित है। अजीव जीव के द्वारा संगृहीत है। उसकी ठोसता आँवले के आकार से वृहत् नहीं होगी।२६ जीव कर्म के द्वारा संगृहीत है । यहाँ आपत्ति उठाई जा सकती है जैन-दर्शन द्वारा मान्य लोकाकाश और अलोकाकाश के कि आकाश सब पदार्थों का आश्रयदाता है, तो आकाश को भी विषय में एक प्रश्र यह भी देखने को मिलता है कि पहले आश्रय देने वाला कोई होगा। आकाश को आश्रय देने वाला लोकाकाश की सत्ता बनी या अलोकाकाश की। सामान्यतया कोई और है, ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आ जाएगा। यदि ऐसा माना जाता है कि सष्टि से पूर्व शून्य आकाश था, जिसमें भौतिक पदार्थ को ही आश्रयदाता मानते हैं तो भी अनवस्थादोष पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि की उत्पत्ति हुई। जैसा कि आ सकता है। क्योंकि किसी भी प्रकार का भौतिक पदार्थ बिना छान्दोग्योपनिषद में वर्णन आया है कि प्रवाहण जैवलि से पछा आश्रय टिक नहीं सकता। अतः अभौतिक द्रव्य आकाश की गया कि पदार्थों की चरमगति क्या है? उत्तरस्वरूप उन्होंने कहा धारणा करते हैं। अतः आकाश स्व-आधारित है और पदार्थों को जिससे समस्त पदार्थों का उद्भव होता है, और अंत में आकाश आश्रय देना उसका स्वभाव है। भगवती वृत्ति में कहा गया है। में ही विलीन हो जाता है ।२७ लेकिन जैन-दर्शन के असार सृष्टि आकाश स्वप्रतिष्ठित है, इसलिए उसका किसी पर प्रतिष्ठित होने अनादि और अनन्त है। अत: उसके अनुसार लोकाकाश और का उल्लेख नहीं है ।२३ प्रश्न होता है आकाश यदि स्वप्रतिष्ठित है अलोकाकाश में पूर्व और पश्चात् का क्रम होने का प्रश्न ही उत्पन्न तो फिर सभी द्रव्यों को स्वप्रतिष्ठित क्यों न मान लिया जाए? नहीं होना चाहिए। भगवई में स्पष्ट कहा गया है कि लोकान्त इसका उत्तर देते हुए डा. मोहनलाल मेहता कहते हैं कि निश्चय और अलोकान्त पहले भी थे और आगे भी होंगे। ये दोनों दृष्टि से तो सभी द्रव्य आत्मप्रतिष्ठित हैं, किन्तु व्यवहार-दृष्टि से शाश्वतभाव हैं। रोह! यह अनानुपूर्वी है-लोकान्त और अलोकान्त अन्य द्रव्य आकाशाश्रित हैं। इन द्रव्यों का संबंध अनादि है, में पूर्व - पश्चात का क्रम नहीं है ।२८ ।। अनादि संबंध होते हुए भी इनमें शरीर हस्तादि की तरह आधाराधेय भाव घट सकता है। आकाश अन्य द्रव्य से अधिक व्यापक है, वैशेषिक-दर्शन दिक् को एक स्वतंत्र द्रव्य के रूप में अतः सबका आधार है।२४ आकाश सबका आधार है यह स्वीकार करता है। उनकी यह मान्यता उचित नहीं जान पड़ती व्याख्याप्रज्ञप्ति में वर्णित महावीर के इस कथन से भी स्पष्ट होता है। जैन-दर्शन के अनुसार दिशा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। आकाश है। 'आकाशतत्त्व से जीवों और अजीवों को क्या लाभ है' के प्रदेशों में सूर्योदय की अपेक्षा दिशाओं की कल्पना की गई है। पं. महेन्द्र कुमार जैन का मानना है कि आकाश के प्रेदशों में गणधर की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए महावीर ने कहा है'गौतम ! आकाश नहीं होता तो ये जीव कहाँ होते? ये धर्मास्तिकाय पंक्तियाँ सभी तरफ कपड़े में तंतु के समान श्रेणीबद्ध है। एक और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते? काल कहाँ पर बरतता? परमाणु जितने आकाश को रोकता है, वह प्रदेश कहलाता है। पुद्गल का रंगमंच कहाँ पर बनता? यह विश्व निराधार ही होता।२५ इस नाप से आकाश के अनन्त प्रदेश हैं। यदि हम पूर्व, पश्चिम जगत् सर्वव्यापक है। ऐसी कोई भी जगह नहीं जहाँ आकाश की आदि का व्यवहार होने से दिशा को एक स्वतंत्र द्रव्य मानेंगे तो , सत्ता नहीं हो। सामान्यतया जिसे हम ठोस समझते हैं, उनमें भी पूर्वदेश, पश्चिमदेश आदि व्यवहारों से देशद्रव्य भी स्वतंत्र मा ना आकाश अर्थात् रिक्त स्थान होता है। मूर्त द्रव्यों में भी आकाश होगा, फिर प्रांत, जिला आदि अनेक स्वतंत्र द्रव्यों की कल्पना निहित रहता है। मिसाल के तौर पर लकड़ी में जब हम कील करनी होगी जो उचित नहीं है ।२९ इस संबंध में विशिष्टाद्वैतवादी ठोंकते हैं तो कील लकड़ी के रिक्त स्थान में ही समाहित होती श्री निवासाचार्य का मत भी उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा है - है। तात्पर्य है कि लकडी में भी आकाश है। आचार्य महाप्रज्ञ के आकाश के जिस प्रदेश से सूर्य उदित होता है, उस प्रदेश को पूर्व अनुसार प्रत्येक पदार्थ में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाश दिशा कहा जाता है तथा वहाँ के मूर्त पदार्थों को पूर्व माना जाता शून्य नहीं है। अवकाशान्तर का यह सिद्धांत आधुनिक विज्ञान । है। जहाँ सर्य अस्तंगत होता है, आकाश का वही प्रदेश पश्चिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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