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________________ आकाश की अवधारणा : आगमों के विशेष सन्दर्भ में भारतीय दर्शन की प्रायः सभी शाखाओं में आकाश की अवधारणा देखी जाती है। अंतर केवल मान्यताओं का है। चार्वाक उसे पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) के रूप में स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन में वसुबन्धु आकाश का वर्णन 'तत्राकाशं अनावृत्ति' कहकर करते हैं।" अर्थात् आकाश न तो दूसरों को आवृत्त करता है और न ही दूसरों से आवृत्त होता है। किसी भी रूप (वस्तु) को अपने में प्रवेश करने से नहीं रोकता। अत: आकाश धर्म है तथा नित्य अपरिवर्तनशील असंस्कृत (जिसका उत्पाद - विनाश नहीं होता) धर्म है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार आकाश एक सरल (अमिश्रित) निरंतर स्थायी तथा अनन्त द्रव्य है। यह शब्द का अधिष्ठान है जो रंग, रस, गंध और स्पर्श आदि गुणों से रहित है । अपनयन की क्रिया द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि शब्द आकाश का विशिष्ट गुण है। वस्तुतः यह निष्क्रिय है किन्तु समस्त भौतिक पदार्थ इसके साथ संयुक्त पाये जाते हैं। सांख्य दर्शन एकमात्र प्रकृति तत्त्व को मानकर उसी से प्रकृति की सारी वस्तुओं की उत्पत्ति मानता है । इसके अनुसार शब्द तन्मात्रा से शब्द गुणवाले आकाश की उत्पत्ति होती है। जैन दर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा मान्य है। धर्म, अधर्म, आकाश जीव और पुद्गल पंचास्तिकाय के अंतर्गत आते हैं। इन्हीं पंचास्तिकायों में काल को समावेशित करके छह द्रव्यों की सत्ता मानी गई है। आकाश इन्हीं छह द्रव्यों में से एक है । ( जैन मतानुसार आकाश के स्वरूप की चर्चा आगे की जाएगी ) । इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय दर्शन में आकाश के स्वरूप के विषय में मतभिन्नता है । फिर देशात्मक । मध्ययुगीन दार्शनिकों में विशेषतः सन्त ऑगस्टाइन ने देश को वस्तुओं से स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं माना है । " रेनेदेकार्त जो बुद्धिवादी दार्शनिक है, ने देश को व्याप्ति (Extention) कहकर उसे जड़ वस्तुओं का मौलिक गुण माना। उनके 'अनुसार विस्तार जड़ का भौतिक धर्म है । जो जड़ में निहित होता है जड़ के विस्तार से भिन्न अथवा अलग नहीं माना जा सकता और न ही दोनों को एक-दूसरे से अलग कर सकते हैं। हमें कभी भी किसी ऐसी वस्तु या पदार्थ का बोध नहीं होता जो देश में फैला न हो । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि देकार्त की दृष्टि में विस्तार (Extention) तथा देश (Space) दोनों एक ही हैं। अतः स्पष्ट होता है कि देकार्त के अनुसार विस्तार जड़ पदार्थ का मौलिक धर्म है। लाइब्नित्ज के अनुसार देश और काल की कोई अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती। उसके अनुसार हम लोग वस्तुओं को भिन्न-भिन्न अवस्थाओं और स्थितियों में देखते हैं यथा, यहाँ वहाँ दूर नजदीक इत्यादि और इसके आधार पर ही देश की कल्पना कर लेते हैं। अतः देश की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है- देश (Space) काल, गति, स्थिरता आकार आदि प्रत्ययों की उत्पत्ति मन से होती है, क्योंकि बुद्धि ही इनका आधार है, जिनका किसी भी प्रकार बाह्य जगत से संबंध होता है।" इससे स्पष्ट होता है कि लाइब्नित्ज देश की यथार्थ सत्ता नहीं मानते, क्योंकि वे पूर्ण रूप से इसे मानसिक अथवा बौद्धिक मानते हैं । इमानुएल काण्ट के अनुसार देश केवल प्राग् अनुभव अंत: दर्शन की उपज है। उनका मानना है कि देश कोई ऐसा आनुभाविक प्रत्यय नहीं जिसे बाह्य अनुभूतियों आकाश के विषय में उपर्युक्त मतभिन्नताएँ न केवल भारतीय से पूर्णतः असंबद्ध कहा जाए । यह दिखाने के लिए जो संवेदनाएँ दर्शन बल्कि पाश्चात्य दर्शन में भी देखने को मिलती हैं। अरस्तू हमें प्राप्त होती हैं, उनका बाह्य वस्तुओं से संबंध है तथा यह के देश (Space) विषयक विचारों के बारे में कुछ विद्वानों का जानने के लिए कि वे वस्तुएँ न केवल हमसे बाहर और और एक मानना है कि अरस्तू दर्शन में देश वह है जिसमें वस्तुएँ स्थित हैं। दूसरे से भिन्न हैं बल्कि वे भिन्न-भिन्न स्थानों पर भी हैं, देश को उनके आधार रूप में मानना आवश्यक है। तात्पर्य है कि बाह्य अन्य विद्वानों के अनुसार अरस्तू ने देश की सत्ता को वस्तुओं पर निर्भर माना है। प्लॉटिनस ने देश की उत्पत्ति को वस्तुओं की अनुभूतियाँ तभी संभव हैं जब संवेदनाएँ देश रूपी साँचे में ढलकर उत्पत्ति के बाद की घटना माना है। वस्तुएँ पहले द्रव्यात्मक हैं, हमारी चेतना में प्रवेश करें। अतः सिद्ध है कि देश संवेदन móramónórambra 43 þóramónóramóné Jain Education International डॉ. विजय कुमार पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी..... For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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