SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1008
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -चतीन्द्रसूरि मारक पन्थ - आधुनिक पद का वर्मएलोपेथिक दवाइयाँ विष से निर्मित होती हैं। यह विष मिश्रित है' (iii) हिंसप्पयाणे--अर्थात् हिंसा में सहायक होना, हिंसक अस्त्र यह उन दवाइयों पर स्पष्ट लिखा भी रहता है। ये दवाइयाँ तत्काल -शस्त्रों का निर्माण करना जैसे अणुबम, उद्जनबम बनाना, तो लाभ पहुँचाती है परंतु इनसे शरीर की रोग-प्रतिरोधक एवं जैविक और रासायनिक शस्त्रों का निर्माण करना। इन शस्त्रों से जीवन-शक्ति का बहुत अधिक ह्रास होता है जिससे आयु क्षीण इतना प्रदूषण उत्पन्न होता है कि एक ही बार में हजारों-लाखों होती है और भविष्य में रोग के दुष्प्रभाव से भयंकर दुःख भोगना लोगों की मृत्यु हो जाती है। जो बच जाते हैं वे भी अपंगपड़ता है। यही कारण है कि वर्तमान में विदेशी लोग एवं उच्च अपाहिज हो जाते हैं। नागासाकी और हिरोशिमा नगर इसके स्तर के बुद्धिमान व्यक्ति इनके सेवन से बचने का प्रयत्न करते प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जैन दर्शन में ऐसे हिंसक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण हैं। ये लोग जब अन्य कोई भी उपचार शेष नहीं रहता है तब ही करने, व्यापार करने, वितरण करने, उपयोग करने आदि को उनका सेवन करते हैं। इसीलिए इन दवाइयों की निर्माता विदेशी अनर्थदण्ड व त्याज्य कहा है। जैन-दर्शन में निरूपित इस व्रत कंपनियाँ अपनी दवाइयाँ एशिया के अविकसित देशों में विक्रय का पालन किया जाए तो युद्धों के दूषित वातावरण का सदा के कर रही हैं। जैन-दर्शन में शरीर को दूषित व विषैला करने वाली लिए अंत हो जाए। हिंसा से निर्मित प्रसाधन-सामग्री, चर्म के इन वस्तुओं के निर्माण व व्यापार को त्याज्य कहा गया है। जूते, रेशमी वस्त्र आदि भी हिंसप्पयाणे अनर्थदण्ड में आते हैं, इसी प्रकार वन को जलाना, नदी-तालाब आदि जलाशयों इसलिए ये भी त्याज्य हैं। अस्त्रों-शस्त्रों के निर्माण के निरोध से बचने वाले धन का उपयोग कर सारे संसार की भुखमरी व के जल को सुखाकर भूमि निकालकर बेचना आदि अन्य कर्मादान भी प्रदूषण पैदा करने वाले होने से जैन दर्शन में इनका गरीबी को दूर किया जा सकता है। त्याग आवश्यक बताया गया है। (iv) पापकम्मोवएसे अर्थात् पापकर्म को प्रोत्साहन देना। अपनी ८. अनर्थदण्ड-विरमण व्रत-अनर्थ का मतलब है व्यर्थ, स्वाथपूति, भागा एव धन स्वार्थपूर्ति, भोगों एवं धन की प्राप्ति के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, निष्प्रयोजन अहितकर-दण्ड का अर्थ है यातना विनाश। अतः ठगी, शोषण आदि के लिए प्रेरित करना व समर्थन करना, प्रोत्साहन अनर्थ-दण्ड-विरमण व्रत का अर्थ निष्प्रयोजन व अहितकर देना, प्रशिक्षण देना आदि कार्य करना। जैसे रेडियो, टेलीविजन विनाश का त्याग करना है। अनर्थदण्ड ये हैं-- आदि में कामोत्तेजक, भोगवर्द्धक, विज्ञापन देना, इनके लिए क्लब बनाना आदि कार्य इसी श्रेणी में आते हैं। जैन-दर्शन में (i) अवज्झाणारिये अर्थात् अपध्यान का करना, दुश्चितन करना। इस प्रकार के मानसिक, सामाजिक, वातावरण को दूषित करने किसी भी व्यक्ति, समाज, राज्य, देश, संस्था को हानि पहुँचाने, वाले कार्यों को सर्वथा त्याज्य कहा गया है। तात्पर्य यह है कि बुरा करने की सोचना। वर्तमान में प्रात:काल ही समाचारपत्र जो कार्य अपने लिए हितकर न हो और दूसरों के लिए हानिकारक पढ़कर किसी नेता, देश, समाज, व्यवस्था, घटना आदि के प्रति । [ हो उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। जैसे मनोरंजन के लिए ऊंटों की रोष, आक्रोश करना, अपने मन को दूषित करना एवं वातावरण पीठ पर बच्चों को बाँधकर ऊँटों को दौड़ाना, जिससे बच्चे को दूषित करना अपध्यान है। इससे किसी को भी लाभ नहीं चिल्लाते हैं तथा गिरकर मर जाते हैं। मुर्गी व साँडों को परस्पर होता है इसलिए इसे अनर्थदण्ड कहा गया है। अतः जैन-दर्शन में लड़ाना आदि। आजकल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के लिए अनेक वातावरण दूषित करने वाले ऐसे चिंतन को गृहस्थ के लिए। पशु-पक्षियों की निर्मम हत्याएँ की जाती हैं, इस प्रकार प्रसाधनत्याज्य कहा गया है। सामग्री के निर्माण में पशुओं का वध तो होता ही है साथ ही (ii) पमायायरिये - मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा को सामग्री का उपयोग करने वाले के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती प्रमाद कहा जाता है। मद का अर्थ मद्यपान करना व अभिमान है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जो स्वादिष्ट वस्तुएँ बनाती हैं, उन पदार्थों करना है। मद्यपान अर्थात् शराब, धूम्रपान, गुटखा आदि नशीले के विटामिन प्रोटीन आदि प्रकृति-प्रदत्त पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते पदार्थों का सेवन करना। इससे अपने शरीर, परिवार, समाज व हैं, साथ ही वस्तुओं का मूल्य भी बीसों गुना हो जाता है। जो साथियों का वातावरण दूषित होता है। इससे किसी को भी लाभ अर्थ की बहुत बड़ी हानि है या दण्ड है अर्थात् अनर्थ दण्ड है। नहीं होने से इसे जैन दर्शन ने दण्ड माना है और त्याज्य बताया है। आज भोग परिभोग के लिए जिन कृत्रिम वस्तुओं का निर्माण हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy