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________________ - यतीन्दगरिक ग्रन्य आवृत्ति को जैनधर्मजैनधर्म में अनागार एवं आगार दो प्रकार के धर्म कहे गये हैं। का लक्ष्य सहज प्राकृतिक जीवन से हटकर भोग भोगना हो अनागारधर्म को धारण करने वाले साधु होते हैं जो पापों के पूर्ण जाता है तो वह भोग के सुख के वशीभूत होकर अपने हितत्याग की साधना करते हैं। आगार-धर्म को धारण करने वाले अहित को, कर्त्तव्य-अकर्तव्य को भूल जाता है और वह कार्य गृहस्थ होते हैं, उनके लिए बारह व्रत धारण करने एवं कुव्यसनों भी करने लगता है, जिसमें उसका स्वयं का ही अहित हो। के त्याग का विधान है। यही आगार (गृहस्थ) धर्म प्रदूषणों से उदाहरणार्थ - किसी भी मनुष्य से कहा जाये कि हम तुम्हारी बचने का उपाय है। इसी परिप्रेक्ष्य में यहाँ बारह व्रतों का विवेचन आँखों का मूल्य पाँच लाख रुपए देते हैं, तुम अपनी दोनों आँखें किया जा रहा है-- हमें बेच दो तो कोई भी आंखें बेचने को तैयार नहीं होगा। स्थूल प्राणातिपात का त्याग - पहला व्रत है स्थूल प्राणातिपात । अर्थात् वह अपनी आँखों को किसी भी मूल्य पर बेचने को का त्याग करना। प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी तैयार नहीं है। वह आँखों को अमूल्य मानता है। परंतु वही भी प्राणी के प्राणों का घात हो । प्राण दस कहे गए हैं--१. मनुष्य चक्षु इंद्रिय के सुखभोग के वशीभूत हो टेलीविजन, श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण, २. चक्षुरिन्द्रियबल प्राण, ३. घ्राणेन्द्रियबल सिनेमा आदि को अधिक समय देकर अपनी आँखों से अधिक प्राण, ४. रसनेन्द्रियबल प्राण, ५. स्पर्शेन्द्रियबल प्राण, ६. मनबल काम लेकर उनकी शक्ति क्षीण कर देता है। इस प्रकार वह प्राण, ७. वचनबल प्राण, ८.कायाबल प्राण, ९. श्वासबल प्राण अपनी आँखों की अमूल्य प्राण की शक्ति को हानि पहुँचाकर और १०. आयुष्यबल प्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण अपना ही अहित कर लेता है। यही बात कान, जीभ आदि को आघात लगे, हानि पहुँचे वह प्राणातिपात है। यह प्राणातिपात समस्त इंद्रियों के विषयों के सेवन से होने वाले प्राणों के अतिपात प्राणी का अर्थात् चेतना का ही होता है, निष्प्राण (अचेतन) का पर घटित होती है। जैन-दर्शन ने पृथ्वी, पानी, हवा तथा वनस्पति न ही, क्योंकि अचेतन जगत पर प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य में जीव माना है, इन्हें प्राणवान् माना है। इन्हें विकृत करने को किसी भी प्रकार के प्रदूषण का कोई भला बुरा प्रभाव नहीं इनका प्राणातिपात माना है। परंतु मनुष्य अपने सुख-सुविधा व पड़ता है, नहीं उसे सुख-दुख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध संपत्ति-प्राप्ति के लोभ से इनका प्राण हरण कर इन्हें निर्जीव, प्राणी से ही है। इस प्रकार के प्रत्येक प्रदषण से प्राणी के ही प्राणों निष्प्राण व प्रदूषित कर रहा है यथा-- का अतिपात होता है। इसी प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण पृथ्वीकाय का प्राणातिपातप्रदषण - कहा जाता है। अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, कृषि-भूमि में रासायनिक खाद एवं एण्टीबायोटिक दवाएँ प्राणातिपात से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात से बचना है। डालकर भूमि को निर्जीव बनाया जा रहा है जिससे उसकी उर्वरा -शक्ति प्राणशक्ति नष्ट होती है। परिणामस्वरूप भूमि बंजर हो जैन-दर्शन में समस्त पापों, दोषों तथा प्रदूषणों का मूल जाती है फिर उसमें कछ भी पैदा नहीं होता है तथा रासायनिक खाद प्राणातिपात को ही माना है। यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि प्राणी प्राणा र से पैदा हुई फसलें शरीर के लिए हानिकारक एवं प्रदूषित होती है। प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करता है? उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है, इससे उसे चलना. फिरना, बोलना. - भूमि का दोहन करके खाने खोदकर खनिज पदार्थ, लोह, खाना, पीना, मल विसर्जन करना आदि कार्य व क्रियाएँ करनी ताँबा, कोयला, पत्थर आदि प्रतिवर्ष करोड़ों टन निकाला जा " रहा है। उसे निर्जीव बनाया जा रहा है तथा उसे कौडियों के भाव होती हैं। परंतु इन सब क्रियाओं में प्रकृति का सहज रूप में उपयोग करें तो न तो प्रकृति को हानि पहुँचती है और न प्राण विदेशों को अपने देश में उपभोग की वस्तुएँ प्राप्त करने एवं शक्ति का ह्रास होता है। इससे प्राणी का जीवन तथा प्रकृति का विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए बेचा जा रहा है। भले ही इस संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से भूमि-दोहन में भावी पीढ़ियों के लिए खनिज पदार्थ न बचे, इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं, परंतु __कारण यह कि खनिज पदार्थ नए पैदा नहीं हो रहे हैं और भावी प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा। पर जब प्राणी के जीवन पीढ़ियाँ इन पदार्थों के लिए तरस-तरस कर मरें, अपने पूर्वजों के इस दुष्कर्म का फल अत्यंत दुःखी होकर भोगें। इस बात की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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