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________________ चतुर्थ खण्ड / १४४ ऋषभदेव-तीन लाख, अजितनाथ-तीन लाख तीस हजार, संभवनाथ-तीन लाख छत्तीस हजार, अभिनन्दन स्वामी-छह लाख तीस हजार, सुमतिनाथ-पाँच लाख तीस हजार, पद्मप्रभ-चार लाख बीस हजार, सुपार्श्वनाथ-चार लाख तीस हजार, चन्द्रप्रभ स्वामी-तीन लाख अस्सी हजार, सुविधिनाथ-एक लाख बीस हजार, शीतलनाथ-एक लाख छह हजार, श्रेयांसनाथ-एक लाख तीन हजार, वासुपूज्यजी-एक लाख, विमलनाथ-एक लाख आठ सौ, अनंतनाथ-बासठ हजार, धर्मनाथ-बासठ हजार चार सौ, शांतिनाथ-- इकसठ हजार छह सौ, कुंथुनाथ-साठ हजार छह सो, अरनाथ-साठ हजार, मल्लिनाथपचपन हजार । मल्लिनाथ चूंकि स्वयं स्त्री रूप थे, उनकी प्राभ्यन्तर परिषद् की साध्वियों को उनके समवसरण में अग्रस्थान प्राप्त था। मल्लिकुमारी ने नारी श्रेष्ठता का प्रमाण इस रूप में दिया कि वे ही एकमात्र ऐसी तीर्थंकर हैं जिन्हें दीक्षाग्रहण के दिन ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उनका प्रथम पारणा भी केवलज्ञान में ही हुआ। मुनिसुव्रत-पचास हजार, नमिनाथ चालीस हजार, अरिष्टनेमि-चालीस हजार । इनके धर्मसंघ में इनकी वाग्दत्ता राजीमती की प्रव्रज्या स्वयं प्रभु के द्वारा होना एक अद्वितीय प्रसंग है। राजीमती द्वारा रथनेमि को प्रवजित रूप में प्रतिबोध देना भी एक विलक्षण प्रसंग है। पार्श्वनाथ -अड़तीस हजार, भगवान् महावीर-छत्तीस हजार । उक्त आंकड़ों से स्पष्ट है कि बाद में चलकर श्रमणियों की संख्या में न्यूनता आई, पर इसका कारण और भी धर्मदर्शनों का उदय हो सकता है। उस समय यह संख्या भी बड़े महत्त्व की संख्या थी। आज का भी आंकड़ा हमें "जैन जगत" मई १९८२ के अंक में प्रकाशित स्व. श्री अगरचन्दजी नाहटा के एक लेख से मिलता है, जो उन्होंने भावनगर के श्री महेन्द्र जैन द्वारा सम्पादित 'धर्मलाभ' नामक पत्रिका से उद्धत किया है। १९८१ में जो संख्या थी वह उस पत्रिका के अनुसार इस प्रकार थी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ३५९० श्रमणी, स्थानकवासी १७६५, तेरापंथी ५३१, दिगंबर प्रायिकाएँ १६८ । इस प्रकार कुल ६०५४ साध्वियों की गणना की गई थी। अभी भी लगभग इतना परिमाण तो है ही। हालांकि विगत वर्षों में बढ़ रहे गुण्डा तत्त्वों से विहार करती साध्वियों को प्रताड़ना दी गई और समाज के सामने उनकी सुरक्षा का प्रश्न भी खड़ा हुआ है पर फिर भी नारीवर्ग में धर्म के प्रति सम्मान व प्रव्रज्या ग्रहण की प्रवृत्ति अधिक ही पाई जाती है। श्रमणियों की अवमानना की स्थिति में समाज में तात्कालिक रोष भी उपजता है। पर इसका स्थायी हल खोजने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। कहीं प्रयास में शिथिलता बरत कर वाहन का उपयोग करने का सुझाव है तो कहीं साथ में गार्ड भेजने की बात है। जो भी हो, एक योग्य हल खोजा जाना जरूरी है। स्त्रियों की मुक्ति पर प्राचीन काल में प्रश्न-चिह्न लगा है। परन्तु मुक्ति को प्राप्त स्त्रियों व श्रमणियों के उदाहरण से हमारा धर्म-इतिहास परिपूर्ण है। रत्नत्रय की प्राप्ति स्त्रियों के लिए संभव है। किसी भी प्रागम में स्त्रियों के रत्नत्रयप्राप्ति का निषेध नहीं है। पुरुष के समान स्त्री भी मुक्ति की हकदार है। श्रमणियों में परिमाण के उपरोक्त आंकड़ों पर दृष्टिपात करने से भले ही उनकी संख्या में न्यूनता पाने का तथ्य उजागर हुआ हो पर उससे उनकी दिव्यता में कोई कमी नहीं आई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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