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________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / ८ में दशवेकालिकसूत्र के इन शब्दों से यही नीति परिलक्षित होती है । वैदिक परम्परा भी सामूहिकता अथवा संगठन की महत्ता स्वीकृत की गई है। 'संघे शक्तिः कलौ युगे - कलियुग में संगठन में ही शक्ति है । इन शब्दों में सामूहिकता की ही नीति मुखर हो रही है । आधुनिक युग में प्रचलित शासनप्रणाली - प्रजातन्त्र का आधार तो सामूहिकता है ही । प्रजातन्त्र का प्रमुख नारा है United we stand divided we fall. - सामूहिक रूप में हम विजयी होते हैं और विभाजित होने पर हमारा पतन हो जाता है । सामूहिकता की नीति देश, जाति, समाज सभी के लिए हितकर है। स्वहित और लोकहित स्वहित और लोकहित नैतिक चिन्तन के सदा से ही महत्त्वपूर्ण पहलू रहे हैं । विदुर ११ और चाणक्य १२ ने स्वहित को प्रमुखता दी है और कुछ अन्य नीतिकारों ने परहित अथवा लोकहित को प्रमुख माना है, कहा है- अपने लिए तो सभी जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीए, जीवन उसी का है । १३ यहाँ तक कहा गया - जिस जीवन में लोकहित न हो उसकी तो मृत्यु ही श्रेयस्कर है । इस प्रकार की परस्पर विरोधी और एकांगी नीति- धाराएँ नीतिसाहित्य में प्राप्त होती हैं लेकिन भगवान् महावीर ने स्वहित और लोकहित को परस्पर विरोधी नहीं माना । इसका कारण यह है कि भगवान् की दृष्टि विस्तृत आयाम तक पहुँची हुई थी। उन्होंने स्वहित और लोकहित का संकीर्ण अर्थ नहीं लिया । स्वहित का अर्थ स्वार्थ प्रोर लोकहित का अर्थ परार्थ स्वीकार नहीं किया । अपि तु स्वहित में परहित और परहित में स्वहित सन्निहित माना । इसलिए वे स्वहित और लोकहित का सुन्दर समन्वय जनता-जनार्दन और विद्वानों के समक्ष रख सके । उन्होंने अपने साधुयों को स्व-पर कल्याणकारी बनने का सन्देश दिया। इसी कारण जैन श्रमणों का यह एक विशेषण बन गया । श्रमणजन श्रपने हित के साथ लोकहित भी करते हैं । भगवान् की वाणी लोकहित के लिए है । ५ पांचों महाव्रत स्वहित के साथ लोकहित के लिए भी हैं। '६ अहिंसा भगवती लोकहितकारिणी है ।१७ 'णमोत्थुणं' सूत्र में तो भगवान् ११. विदुरनीति १६ १२. चाणक्यनीति १।६; पंचतन्त्र १।३८७ १३. सुभाषित, उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण पृ. २०८ १४. वही, पृष्ठ २०५ १५. प्रश्नव्याकरणसूत्र स्कन्ध २, श्र. १, सू. २१ १६. प्रश्नव्याकरणसुत्र, स्कन्ध २, प्र. १, सू. १७. शक्रस्तब - प्रावश्यकसूत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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