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________________ तृतीय खण्ड अर्थ जा च न . ले ५२ भावशुद्धि के साथ दिया जाय। अन्यथा वह आत्मा पर रहे हए कर्मों को कम करने के बजाय और बढ़ा देता है। क्योंकि "यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी।" एक छोटा-सा उदाहरण इस बात को स्पष्ट करता है-एक व्यक्ति अधिक अमीर न होने पर भी बड़ा परोपकारी और दानी था। उसके पास जितना भी धन होता उसे दीन-हीन प्राणियों की सहायता में चुपचाप व्यय कर देता। एक दिन उसके पास एक फ़रिश्ता आया और बोला "भाई ! मैं खुदा के द्वारा उन व्यक्तियों की सूची बनाने के लिये भेजा गया हूँ, जो सच्चे दिल से खुदा की बंदगी और पूजा करते हैं। क्या इस सूची में तुम्हारा भी नाम लिख . " ला 16 परोपकारी व्यक्ति ने संकुचित होकर उत्तर दिया-- “मैं खुदा की बंदगी नहीं कर पाता केवल उसके बन्दों की कुछ सहायता करता हूँ। अगर खुदा के बन्दों की सेवा करने वालों की कोई सूची आपके पास हो और लिखना ही चाहें तो उसमें मेरा नाम लिख लीजिये ! वैसे कोई जरूरत नहीं है नाम लिखने की।" फ़रिश्ता यह सुनकर बिना कुछ कहे चला गया और वह व्यक्ति भी शीघ्र ही इस घटना को भूल गया; किन्तु मरने के पश्चात् जब वह पाप-पुण्य की फेहरिश्त बनाने वाले एक फ़रिश्ते के पास ले जाया गया तो उसने देखा कि ख दा की बंदगी करने वालों की सूची में सर्वप्रथम उसका ही नाम लिखा हुआ है । वह व्यक्ति यह देखकर दंग रह गया। किन्तु यथार्थ बात यही है कि भगवान के नाम की मालाएँ फेरते रहने से, उसकी जल, चन्दन और पुष्प आदि से पूजा करने से, दिन में कई बार नमाज़ पढ़ने से अथवा गुरुग्रंथ साहब के समक्ष माथा टेकने से ईश्वर या खुदा प्रसन्न नहीं होता। अगर उसके बंदों की यानी दीन-दु:खी और असहाय व्यक्तियों की सहायता-सेवा न करते हुए उनका तिरस्कार या उपेक्षा की जाय । (३) भावशुद्धि और भक्ति आज हम इस महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार-विमर्श कर लें कि संसार के समस्त प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् भाव, सेवा, दान एवं भक्ति आदि शुभ क्रियाएँ भावशुद्धि के साथ ही की जायँ, तभी वे सार्थक या फलप्रदात्री बनती हैं। पर ऐसा तभी संभव होता है जबकि हमारी आत्मा में विवेक एवं निज-ज्ञान की ज्योति जग जाय, अन्यथा परस्पर विरोधी मान्यतामों और क्रियाकांडों में व्यक्ति भ्रमित मोकर सन्मार्ग छोड़कर उन्मार्ग पर चल देता है और वे सभी क्रियाएँ खोखली और निष्फल साबित होकर आत्मा को संसारमुक्त करने के बदले संसार-परिभ्रमण के चक्र में फंसा देती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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