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________________ एक अनोखा व्यक्तित्व : अर्चनीय श्री अर्चनाजी / १२५ A मनुष्य की कर्त्तव्यविधि का विश्लेषण करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है अट्ठकरे णामं एगे णो माणकरे । माणकरे णामं एगे णो अट्ठकरे। एगे अट्ठकरे वि माणकरेवि । एगे णो अट्ठकरे, णो माणकरे। कुछ व्यक्ति सेवा प्रादि कर्त्तव्य करते हैं किन्तु उसका अभिमान नहीं करते। कुछ अभिमान तो बहुत करते हैं किन्तु कार्य कुछ नहीं करते। कुछ कार्य भी करते हैं और उसका अहंकार भी करते हैं। कुछ न कार्य करते हैं और न अहंकार ही करते हैं । इनमें प्रथम श्रेणी का कर्तव्य-साधक सर्वश्रेष्ठ है । वह बहुमूल्य हीरा है, मूल्यवान मणि है, जो कभी अपना मूल्य अपने मुंह से नहीं बताता-"हीरा मुख से ना कहे लाख हमारा मोल" । वह साधक ऐसा सुन्दर सुमन है जो अपनी सौरभ बिखेरता है और मकरंद लुटाता रहता है किन्तु यशोलिप्सा नहीं है, मानसम्मानप्राप्ति की आकांक्षा, उत्सुकता नहीं है, चाहना नहीं है। वह कर्तव्यनिष्ठ पुरुष अंधकार से निरन्तर संघर्ष करते रहने वाला दीपक है जो प्रतिक्षण दिव्य ज्योति-किरणें फैलाता रहता है । परम तपस्विनी महासती श्री उमरावकुंवरजी भी इसी कोटि की एक साधिका हैं जो निरन्तर साधना करते हुए एवं कर्तव्य की कठोर असिधारा पर चलते हुए भी अहंकार से अछूती हैं। महासतीजी हमेशा से सिद्धान्तवादी रही हैं । सिद्धान्त के लिए किसी के सामने झुकना उन्हें पसन्द नहीं है । जीवन में नम्रता व कोमलता होने पर भी सिद्धान्तों की रक्षा में वज्र से भी अधिक कठोर हैं। उनके सिद्धान्तवादी दृष्टिकोण को शायर के शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं राहे खुद्दारी से मरकर भी भटक सकते नहीं। टूट तो सकते हैं हम, लेकिन लचक सकते नहीं। महासतीजी जब आनन्दघनजी, विनयचन्दजी, देवचन्दजी, यशोविजयजी, पूज्य जयमलजी, प्राचार्य रायचन्दजी आदि के त्याग वैराग्य से छलछलाते हुए भजन गाती हैं तब श्रोता आध्यात्मिक अनुभूतियों में निमग्न हो जाते हैं । वे प्राचीन जैनलिपि व जैनग्रन्थों की सुदक्ष ज्ञात्री हैं, मोती के दाने के समान उनके सुन्दर अक्षर हैं। प्रस्तुत अभिनन्दनग्रंथ महासतीजी का नहीं अपितु उनमें निवास करने वाले सद्गुणों का है । उनका जीवन सद्गुणों का गुलदस्ता है, उसको मधुर महक हमें सुदीर्घ काल तक प्राप्त होती रहे--यही मंगल-कामना और भव्य-भावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only WYMI ainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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