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________________ परम उपकारमयी गौरवमण्डिता मेरे जीवन की सन्निर्मात्री परमपूज्या गुरुणीजी | ३९ एक सपना टटू गया तो दूसरा बनाइये। जिन्दगी को जिन्दगी की तरह बिताइये। आपका जीवन अमृत-निर्भर है। आप जिस मार्ग से गुजरती हैं, अमृत-कणों की वर्षा से लोगों का हृदय अभिसिक्त कर देती हैं । अमृत का निवास कहाँ ? इस विषय पर किसी कवि ने अत्यन्त हृदयग्राही समाधान किया है, जो निम्नांकित श्लोक में प्रस्तुत है अब्धौ विधौ वधुमुखे फणिनां निवासे । स्वर्गे सुधा वसति वै विबुधा वदन्ति । क्षारात्क्षयात्पतिमृतात् गरलात्पतत्वात् । कण्ठे सुधा वसति वै भगवज्जनानाम् ।। विद्वानों ने विविध स्थलों पर अमृत की संभावनाएँ प्रस्तुत की हैं। किसी ने कहा-अमत का निवास समद में है. किसी ने चन्द्रमा को सधाकर बताया, किसी कवि को वधूमुख में अमृत की आशंका थी तो किसी को नागलोक में । अधिकतर लोगों की मान्यता तो यह है कि अमृत का निवास स्वर्ग में ही है । निम्न कारणों से कवि ने पाँच स्थलों पर अमृत की संभावना का निषेध किया है । कवि की मान्यता है कि यदि समुद्र में अमृत होता तो उसका जल खारा क्यों होता ? यदि चन्द्रमा में अमृत का निवास होता तो उसकी कलाओं का क्षय क्यों होता ? वधूमुख में अमृत रहता तो उसे कभी भी विधवा नहीं होना चाहिए। नागलोक में अमृत का अधिष्ठान होता तो नागों में विष कैसे होता ? और यदि स्वर्गलोक में अमृत की संभावना होती तो देवगण स्वर्ग से च्युत कैसे होते ? अतः उपर्युक्त कारणों से यह निर्विवाद सत्य है कि इन स्थलों में तो अमृत का निवास नहीं है। यदि अमृत के निवास की संभावना है तो वह मात्र भगवत्-उपासकों के कण्ठ में । भगवत-उपासकों के कण्ठ से जो वाणी निःसृत होती है, वही सुनने वालों को अमरत्व की प्रतीति करा देती है। _ अतः यह तो स्वयंसिद्ध है कि अमृत का निवास भगवत्-उपासकों के कण्ठ में है और जो स्वयं भगवान् बनने जा रहा हो उसके कण्ठ को सुधाधारा की सरसता का तो कहना ही क्या ? अन्त में आपके विचारों के बीजमन्त्र प्रस्तुत करती हूँमन को समझाने का एक तरीका है "मन रे तू काहे न धीर धरे ? उतना ही उपकार समझ ले, जितना कोई संग निभा दे, कोई संग न जीये, कोई न संग मरे ॥" जिन परिस्थितियों में इंसान टूट जाता है, उनमें भी आप हंसने की सलाह देते हैं। आप जिन्दगी के हर 'मूड' और हर पहल पर सीधे-सीधे शब्दों में अपनी बात Jain Education International For Private & Personal Use Only M ainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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