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________________ योग और आयुर्वेद | २२७ कुछ अंशों में वही कार्य व्यायाम के द्वारा भी सम्पन्न होता है। यद्यपि योगासनों और व्यायाम में तुलना नहीं की जा सकती और न ही व्यायाम की श्रेणी में योगासनों को रखा जा सकता है। क्योंकि योगाभ्यास व्यायाम की अपेक्षा कहीं अधिक उत्कृष्ट माने गए हैं, तथापि स्वास्थ्यरक्षा की दृष्टि से दोनों को समान मानने में कोई आपत्ति नहीं है। यद्यपि आयुर्वेद में योगासनों का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि वे अभ्यसनीय या आचरणीय नहीं हैं। सम्भवतः कष्टसाध्य होने अथवा उनकी दुरूहता के कारण उन्हें आयुर्वेद में परिगणित नहीं किया गया है, किन्तु व्यायाम के माध्यम से या व्यायाम के रूप में वे अभ्यसनीय हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रायुर्वेद में जो स्वस्थवृत्त और सद्वृत्त वर्णित है, यह सर्वथा योगासनों के अनुकूल है। योगासनों के द्वारा जो सुपरिणाम स्वास्थ्यअनुवर्तन और विकाराभिनिवत्ति के रूप में प्राप्त किए जाते हैं वे भी सर्वथा आयुर्वेद के अनुकूल हैं । इस दृष्टि से योग और आयुर्वेद में निकटता होना स्वाभाविक है। योगासनों के अभ्यास में जब साधक स्थिरता और सुदृढ़ स्थिति को प्राप्त कर लेता है तो वह प्रगामी योगांग "प्राणायाम' के अभ्यास में तत्पर होता है। प्राणायाम वस्तुतः प्राणवायु के निरोध की एक ऐसी विशिष्ट प्रक्रिया है जिसके अभ्यास की सफलता होने पर मनुष्य को सुदीर्घ आयु प्राप्त होती है। आयुर्वेद में भी दीर्घायु की प्राप्ति के लिए अनेक विधिविधान और उपाय वर्णित हैं। आयुर्वेद में केवल दीर्घायु की प्राप्ति के लिए ही उपायों का उल्लेख नहीं है, अपितु सुखायु और हितायु का भी विवेचन किया गया है। साथ ही असुखायु और अहितायु का ज्ञान और उससे बचने का उपाय भी प्रतिपादित है। प्राणायाम में प्रायु की दीर्घता वायु के निरोध पर निर्भर है। मन की चंचलता और निश्चलता भी वायु के निरोध पर निर्भर है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणायाम ही वायु पर आधारित होने से वायु को विशेष महत्त्व दिया गया है, जैसा कि उपनिषद् के निम्न उद्धरण से स्पष्ट है चले वाते चलं चित्त निश्चले निश्चलं भवेत् । योगी स्थाणत्वमाप्नोति ततो वाय निरोधयेत ॥ -वायु के चलायमान होने पर मन भी चंचल रहता है और वायु के निश्चल रहने पर मन भी निश्चल हो जाता है, तब योगी स्थाणुत्व (स्थिरता) को प्राप्त करता है। अतः वायु का निरोध (वश में) करना चाहिए । यहाँ वायु का महत्त्व बतलाया गया है । वायू के निरोध के बिना प्राणायाम की सिद्धि सम्भव नहीं है। प्रायुर्वेद में भी वायु को विशेष महत्त्व दिया गया है। शरीर में सम्पन्न होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं, इन्द्रियों और मन का नियन्ता व प्रणेता वायु को ही माना गया है। शरीर की स्वस्थावस्था में कारणभूत दोषसाम्य और विकारावस्था में कारणभूत दोषवैषम्य के अन्तर्गत वायु की ही प्रधानता है। वायु के बिना अन्य दोनों पित्त और कफ दोष निष्क्रिय रहते हैं। उनमें कोई गति नहीं होती और न ही उसमें कोई क्रिया होती है। जैसा कि प्रतिपादित है पित्त पंगु कफः पंगु पंगवो मलधातवः । वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत् ॥ em आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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