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________________ सम्पादकीय आजादी के पश्चात् जब राजस्थान का एकीकरण हुआ और जयपुर राज्य प्रजामंडल के प्रमुख नेता श्री हीरालाल जी शास्त्री के नेतृत्व में नव निर्मित राजस्थान सरकार ने कार्यारम्भ किया तो राज्य की बहमुखी समृद्धि की दृष्टि से राज्याधिकारियों और जन सेवकों के मिले जुले दस मंडल कायम किये गये। उस समय संस्कृत मंडल में पुरातत्वाचार्य श्री जिनविजयजी मुनि भी शामिल हुए और उनकी देख रेख में राजस्थान पुरातत्व मंदिर की स्थापना हुई जिसने राजस्थान की प्राचीन साहित्यिक निधि के संग्रह, सुरक्षा और प्रकाशन को जिम्मेदारी ली। श्री मुनिजी से परिचय तो पहले से ही था, पर तब से उनके व्यक्तित्व से निकट का सम्पर्क बना और उनके विचार और कार्य के प्रति सराहना की भावना उत्तरोत्तर दृढ होती गई। उस समय हम लोग-श्री सिद्धराज जी ढढ्ढा, श्री पूर्णचन्द जी जैन और मैं दैनिक लोकवाणी से सम्बद्ध थे और उक्त माध्यम से मुनिजी के द्वारा राजस्थान में चलाई जाने वाली इस महत्वपूर्ण प्रवृत्ति को अधिकतम बल देने का प्रयास किया गया। समय बीतता गया। १९६३ में जब मुनिजी ने अपनी प्रायु के ७५ वर्ष पूरे किये और उसके पूर्व उन्हें भारत सरकार के द्वारा पद्मश्री की उपाधि से भी सम्मानित किया गया तथा वे राजस्थान पुरातत्व मन्दिर से भी जो अब राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के रूप में उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध होता जा रहा था अवकाश लेने की चर्चा करने लगे, तो सहज ही मुनिजी का अभिनन्दन करने और उन्हें अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने का विचार उत्पन्न हया और इसे परम आदरणीय प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी संघवी का पाशीर्वाद तथा श्री दलसुख मालवरिणया और श्री रतिलाल देसाई का प्रोत्साहन और सहयोग मिला तो मुनि जिनविजयजी सम्मान समिति का संगठन हा तथा उसकी प्रबंध समिति और संपादन समिति बनी। कार्यारम्भ हुआ और अच्छी संख्या में लेख श्री दलसुखभाई तथा अन्य मित्रों के प्रयास से प्राप्त हुये। यहीं से कठिनाइयों का प्रारम्भ हो गया। स्वाभाविक रूप से इस काम की जिम्मेदारी श्री पूर्णचन्द जी जैन पर और मुझ पर आई, हमें यह भार उठाने में प्रसन्नता भी थी और रुचि भी । पर हम लोग विविध प्रवृत्तियों में बहुत अधिक फंसे हुये थे। अतः इस काम के लिए समय निकालना बहुत कठिन पड़ा और फिर अर्थ संग्रह का काम तो इतना कष्टमय और निराशापूर्ण रहा कि कई बार हम लोग हिम्मत हार गये और समिति के ही विसर्जन का विचार करने लगे, पर विसर्जन की भी हिम्मत नहीं हुई और जैसे भी हो इस कार्य को सम्पन्न करने का ही तय किया। इस निर्गय को राजस्थान सरकार द्वारा स्वीकृत आर्थिक सहायता से भी बहुत बल मिला । प्रेस की कठिनाइयाँ भी अत्यधिक रही और विलम्ब भी इतना हो गया कि प्रारम्भ के छपे अनेक फार्म ही मैले हो गये और कुछ फार्म तो दुबारा छापने पड़े । प्रेस के एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के कारण काम भी काफी समय तक रुका रहा । खैर, कुछ भी परिस्थितियां बनी, अब यह अभिनन्दन ग्रन्थ अापके सम्मुख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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