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________________ ३६ ] [ हजारीमल बांठिया आच्छादित कंटकाकीर्ण भूमि के भाग्य उदय होने को थे कि मुनिजी के पांव वहां पड़े । इस स्थान पर प्राते ही जब उन्होंने देखा कि यह एक ऐसा स्थान है जहां से प्राची-दिशा में प्रातःकालीन सूर्योदय के साथ ही हमारे पूर्वजों की कीति को उजागर करने वाला बेड़च-गंभीरी के संगम तट पर आसीन यह विशाल किला और कीत्तिस्तंभ विजय स्तंभ तथा मीरा मंदिर मुझे निरंतर उल्लसित संतुष्ट करता रह सकेगा एवम् हरिभद्र सूरि सरीखे विद्वान् मनीषी पुरुष की साधना, मुझे अनुप्राणित करती रह सकेगी जिसने १४०० ग्रन्थ लिख कर राजस्थान के पुरातत्त्व साहित्य के प्रखूट भंडार को भरपूर किया था तो उन्होने यहीं डेरा डाल दिया । बस फिर क्या था मुनिजी की झोपड़ी बनी, स्वयं परिश्रम पुरुषार्थ में पीछे नहीं रहे और कुछ ही वर्षों में चंदेरिया स्टेशन के पास की भूमि ने एक सुन्दर सुहावने आश्रम का रूप धारण कर लिया जो प्राच्यकालीन ऋषियों के पाश्रम की भांति ही मन को लुभावना लगता है। इस आश्रम की स्थापना के साथ ही इस क्षेत्र की गरीबी, भुखमरी और बेकारी की पीड़ा मुनिजी के दया हृदय को बेधने लगी। पास पास के बेकार भूखे लोगों को काम देने और अन्नोत्पादन के काम में वृद्धि करने के इरादे से उन्होंने बीसियों बीघा वीरान भूमि को अपने अध्यवसाय से कृषि योग्य बनाकर तीन गहरे कुए खुदवा बंधवा कर जमीन की सिंचाई की व्यवस्था की। चित्तौड़ जिले के प्रवेश द्वार पर हरिभद्र सूरि के नाम पर एक सुन्दर मंदिर, तथा भामाशाह भारती भवन की इमारत एवम् सर्वोदय साधना आश्रम चंदेरिया में सर्वदेवायतन नाम से सभी मतावलम्बियों के देवताओं वाला आकर्षक मनोहर मंदिर तथा इमारतें खड़ी करने में जहाँ मुनिजी को हरिभद्र सूरि, भामाशाह अदि की स्मृति में अपने श्रद्धा पुष्प अर्पण करने की कल्पना रही है, वहां गरीबों को काम देने और अपनी शक्ति के अनुसार उनकी मदद करने की कारुणिक प्रेरणा भी रही है। हाल ही उन्होंने अपनी जन्मभूमि रूपाहेली ग्राम में बत्तीस हजार रु. की लागत से जो गांधीग्राम भवन निर्माण करवाया है, उसका उल्लेख मैं ऊपर कर ही चुका है। इस भवन में प्रादेशिक कस्तूरबा स्मारक निधि की ओर से एक बाल मंदिर चल रहा है। इन भवनों की स्थाई व्यवस्था के लिए मुनिजी अपने विश्वस्त लोगों का एक ट्रस्टी मंडल बनाने की सोच रहे हैं। अब रही उनकी विद्वत्ता वाली बात । यों तो मुनिजी महाराज कहा करते हैं कि मैंने जीवन में जो कुछ उपयोगी काम किया है, वह है, “इस आश्रम तथा पास की जमीन में अन्न के दाने पैदा करने वाला थोड़े से समय का काम ।" पुरातत्व के काम, अध्ययन मनन चिन्तन भ्रमण आदि जीवन के सम्पूर्ण अन्य कार्यों को वे अाज फालतू ही मानते हैं । यह उनकी महानता है कि इस प्रकार कह कर वे लोगों के पुरुषार्थ और कर्मशक्ति को जगाना चाहते हैं, परन्तु उन्होंने विविध भाषानों के अध्ययन से जीवन में अपनी बौद्धिक प्रतिभा को बढ़ाया। संस्कृत प्राकृत आदि प्राचीन भाषायें, हमारे देश की प्रचलित विभिन्न प्रादेशिक भाषायें, अग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच आदि कुल मिलाकर एक दर्जन से भी अधिक भाषाओं का ज्ञानार्जन करना उनके ग्रन्थों का निचोड़ लेकर उनके प्रसादों से मातृभाषा के भंडार को मंडित करना क्या कम महत्व की बात है ? यह खुशी की बात है कि उनकी मूल्यवान् सेवाओं से लाभान्वित होने का सुयोग राजस्थान सरकार को भी मिला और उसने मुनिजी की विद्वात्ता और प्रतिभा का लाभ लेने के ख्याल से उन्हें प्राच्य-शोध संस्थान के डाइरेक्टर के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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