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________________ मुनिश्री जिनविजयजी की कहानी ] सर्वोदय साधना पाश्रम, मु. चन्देरिया जि. चित्तोड़गढ़ वर्तमान मुकाम राजस्थान पुरातत्व मन्दिर, जयपुर ७-८-५० मैं पिछले मई में ता. १३ को यहां आकर यहां के पुरातत्व मन्दिर का काम चालू किया है । धीरेधीरे काम जम रहा है। सरकारी काम है । किसी को फिक्र तो है नहीं। ओफिसियल ढंग से सब काम होता रहता है। राजस्थान में कुछ ऐसी संस्था बने तो अच्छा है इस प्रलोभन से मैंने यहां का कुछ भार लेना स्वीकार किया है बाकी मेरा लक्ष्य तो अब चन्देरिया के आश्रम की अोर है। मैं यहां बीच-बीच में प्राता जाता रहता हूं । स्थाई रूप से नहीं । चन्देरिया में भी बैठकर तो वही मुख्य करता रहता है। अभी तो वहां कुछ भी साधन नहीं जमा । स्टेशन पर एक झोंपड़ी किराये पर रखकर उसके आश्रय में काम चालू किया गया है । वहां मुख्य उद्देश्य तो खेती का है । स्वयं परिश्रम भी करने का ध्येय है। अभी कुप्रा खुद रहा है और एक छोटासा मकान बन रहा है। xxxराजस्थान पुरातत्व मन्दिर का कार्य क्षेत्र बहुत ही संकुचित रखा गया है। राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज और कुछ ग्रन्थों का प्रकाशन बस इतना ही-इसकी कार्य सीमा निर्धारित की गई है। यहां के पुराणे ब्राह्मणों की वृत्ति को इस निमित्त से कुछ रुपया मिल जाय तो ले लेना-इस दृष्टि से काम कर रही है। इनको साहित्य, संस्कृति या इतिहास के उद्धार की कोई चिंता नहीं है-कल्पना भी नहीं है। भारतीय विद्याभवन बम्बई-७ ता. १५-७-५३ ___ मैं भोजन के लिये उठने वाला ही था और भवन के ४ मंजिल उतर कर अपने रहने के मकान में . पहुंचने को उठा ही था कि आपका पो. का. हाथ में आया उसी क्षण वापस टेबिल पर बैठकर आपकी आज्ञा का पालन कर रहा हूं और यह पत्र लिख रहा हूं। भोजन और चाय अब तीन बजे एक साथ ही लूगा कल सायंकाल से सिर में दर्द हो रहा है इसलिये सुबह भी कुछ नहीं लिया था-टेबिल पर पूफों का ढ़ेर पड़ा है इसलिये निपटाने की दृष्टि से सुबह के ७ बजे से एकासन पर बैठा हूं -xxxआप लिखते हैं-मैं कुछ रुष्ट हया हं! सो कैसे जाना ? हाँ कभी कभी रोष प्राने जैसा आपका तकाजा होता है पर वह तो काम की दृष्टि से आप मुझे चाबुक दिखाते रहते हैं ऐसा मानकर रोष को छुटकार देता हूं-पर इतनी बात जरूर मन में आजाती है कि आप नितान्त लोभी प्रकृति के और एक मार्गी हैं- जो आया उसे उठाया और कोठार में रखा-वाली कहावत के पाप उदाहरण दिखाई देते हैं और जो कुछ थोड़ा बहुत जैसा वैसा भी काम कर रहा हूं उसकी कोई खास कद्र आपको है नहीं और आप सदैव यह नहीं हुआ—वह नहीं हुआ के चाबुक मुझे लगाते रहते हैं सो जरा मेरे जैसे अल्पज्ञ और अल्प प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति के लिये प्राकर लगना स्वाभाविक है। पर मैं यह जरूर समझता हूं कि आपका आशय तो ठीक है-उसमें विवेक की कमी है । मेरे लिये तो आशय ही ग्रहणीय है और उसी को नजर सामने रखकर मैं आपके मान ममत्व भाव रखता हूं और रखता रहूंगा। X X केवल अपनी मूर्खता भरी धुन के कारण उनके (प्रतियों) पीछे पड़ गया और न शरीर, न समान, ने खानपान, और प्रारोग्य-प्रानन्द प्रादि का ध्यान रखा और न किसी के प्रोत्साहन या प्रशंसा की माकांक्षा X Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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