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________________ २४ ] हजारीमल बांठिया वम्बई २०-५-४१ आपकी सागग्री बड़ी सुरक्षितता के साथ रखी हुई है। आपने ऐसी अनमोल चीजे जिस विश्वास के साथ मुझे दी है उसका स्वपन में भी कोई दुरुपयोग नहीं होगा। पं० सुखलाल जी यहीं हैं और यशोविजयजी के बारे में कुछ विस्तृत निबन्ध सामग्री इकठ्ठी कर भाई हजारीलाल को सप्रेम शुभाशीर्वाद-उनका मेरा उस व्याख्यान का सार वाला लेख आज ही मैंने 'अनेकान्त' में पढ़ा। बड़ी जल्दी से लेख तैयार कर डाला और छपवा भी दिया सो जानकर हैरान सा हो गया कि यह कहां से और कैसे पा गया । सार यों तो बहुत ही ठीक और व्यवस्थित है पर बीच में जहां गड़बड़ होगई है और उससे कुछ भ्रमसा हो जाता है। अच्छा होता यदि यह मुझे जरा दिखला दिया जाता तो जरा सुधार देता, क्योंकि सार्वजनिक संस्थाओं और अन्य व्यक्तियों का उल्लेख करते समय जरा पूर्वापर का विचार रखना पड़ता है। कई विघ्न संतोषी होते हैं जो अर्थ का अनर्थ करने ही में तत्पर रहते हैं । खासकर मगालाल सेठ के विषय में जो एक वचन का प्रयोग प्रादि किया गया है वह ठीक नहीं। दिवालिये आदि वाली भाषा भी जरा अोछी लगती है । सो इस विषय में भविष्य में पूरा ख्याल रखना और ऐसी भाषा और शब्दों का व्यवहार करना चाहिए जिससे किसी को कुछ खटके नहीं। भाई हजारीलाल होनहार हैं और इसे खूब तैयार होना चाहिए यही हमारी शुभकामना है । मूलचन्द्र अहमदाबाद में है और मजे में है। विशेष श्रीमान् प्रो० स्वामी नरोत्तमदासजी से मेरा स्नेह प्रणाम कह दीजियेगा । और राव जयतसीरा छंद की तारीफ करते रहिये । श्रीमान् ठाकूर रामसिंहजी से भी मेरा सादर प्रणाम कह दीजियेगा और जल्दी होने के कारण मैं उनसे फिर नहीं मिल सका और उनके साथ वार्तालाप आदि का लाभ नहीं उठा सका इसका मुझे खेद ही रहा पर देखू कभी फिर इसका निवारण हो जायगा। आप उनसे मेरी ओर से बहुत आदर के साथ यह बात कहदें और राजस्थानी साहित्य का स्रोत जैसा कि स्व० पारीकजी के जाने से बहता बन्द हो गया है उसे फिर से चालू करियेगा। उस साहित्य के प्रकट करने का मार मैं अपने सर पर उठा लूगा। बम्बई ३०-८-४१ अगर आप मेरे हाथ से कुछ उपयुक्त साहित्य सेवा के होने की आशा रखते हैं तो आपको तो ज्यो बने त्यों मुझे उत्साह देना दिलाना चाहिए और सहायता करनी चाहिये । आप ही जैसों के उत्साह से तो मैं अपने शरीर का सर्व तरह से क्षय करता हुआ इस व्यसन में डूबा रहता हूं-नहीं तो यह पुस्तक प्रकाशन और गरीबों के गमत धोना दोनों एक से प्रिय और आत्मोन्नति साधक प्रतीत होते हैं इसलिए मेरे वास्ते इसका कुछ अधिक महत्व नहीं है । आपतो गृहस्थ हैं, कुटुम्ब वाले हैं, व्यापारी स्वभाव के वणिक हैं इसलिये आपके लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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