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________________ दलसुख मालवणिया [ १७ स्थित थये पुनः सम्पादन करवानी तेमनी धगश प्राजे ज्यारे जोउं छु त्यारे खरेखर तेश्रो प्र ेरणामूर्तिरूपे वंदनीय ज नहि अनुकरणीय परण बनी जाय छे । आवो छे तेमनो सम्पादननो रस । तेमणे श्रा सम्पादननो रस कहो के चेप कहो घरणांने लगाड्यो छे। अने परिणामे आपणे जोइये छीये के तेमना द्वारा सम्पादित ग्रंथमालाश्रोमा अनेकनो सहकार तेस्रो लुई शक्या छे । सम्पादनांनी संख्याना प्रमाणमां तेमनुं स्वतंत्र लखारा ओछु गरणाय । परण तेमणे जे कांई लख्यु छे ते आजे पर अकाट्य ज छे । इतिहासनी बाबतमां एवी तेमनी चीवट प्रारभथी ज हती । श्राचार्य हरिभद्रना समय विषे तेमणे प्रथम निबंध लख्यो हतो ते पूनामां इ० स० १६१६ मां भरायेल ओरियेन्टल कोन्फसना प्रथम अधिवेशन मां वांच्यो । आजे लगभग पचास वर्ष पछी पण ते निबंधनु मूल्य घट्य नथी, पर डॉ० जेकेबी जेवा विद्वानों परण पोताना मंतव्यो ए निबंध ने ग्राधारे बदल्या छे, ग्रावु अनु मूल्य छे । तेमना जैन विषेना ऐतिहासिक लखाणो नो संक्षेप करीने हमरणा ज 'जैन इतिहासनी झलक' नामे एक पुस्तक प्रकाशित थयुं छे, ते जोवाथी ख्याल आवे छे के जैन इतिहास क्षेत्रे प्राचार्य श्री जिनविजयजी ए केव ं वैविध्यपूर्ण लख्यु छे । प्राचार्य जिनविजयजी केवल विद्वान नथी परण साथै भारतीय जीवनना जे विविध पासां छे तेमां सक्रिय रस पर ले छे । जर्मनीमां विद्या अर्थ गया त्यारे पण त्यां प्रा सदीना प्रथम वीशीमां तेमणे बर्लीनमां इन्डिया हाउसनी स्थापना करेली । पाछा आवी भारतनी राष्ट्रव्यापी स्वातंत्र्य लडतमां जोडाया भने धरासा मां मीठु पकवनार टुकडीनां नेता पण बन्या हता । आजे परण तेमणे चितोड पासे चंदेरिया नामना नाना गामडामा सर्वोदय श्राश्रम स्थाप्यो छे अने त्यां बाल मंदिरनी अने रोगीश्रोने दवा-दारुनी सगवड परण करी छे । खेतीनो अने बगीचानो शोख तेमणे जे प्रकारे केलव्यो छे, तेथी तो तेश्रो छोडनी मावजत करनार माली थी जरा परण ओछा उतरे एवा नथी । विद्या साधे ग्राम रचनात्मक सक्रिय कार्योंनो रस भाग्येज अन्यत्र जोवा मले छे । आचार्य जिनविजयजीन जीवन अने तेमनी विचारणाश्रोनो ज्यारे विचार करीये छीए त्यारे तेमनु एक लक्षण जडी आवे छे ते ए छे के तेश्रो एकज वस्तु के विचारने चोटी रहता नथी, परण नित्य नूतन जगाय छे । जीवनमा तेमणे अनेक वेशी बदल्या, तेम अनेक विचारसरणी परण खुल्ले मने स्वीकारी अने छोडी । अने श्राज सर्वोदयनी साधनामां प्रावीने ऊभा छे । तेमणे पोताने हाथे अनेक मकानोनु ज निर्माण कर्यु छे एम नथी, अनेक विद्यासंस्थान निर्माण पर कर्यु छे । पण स्वभाव प्रमाणे तेश्रो क्यांई मूढ थई चोटी शकता नथी । स्व माननी जाणवरणी ए मुख्य वस्तु छे, एमां कांई बाधा श्रावे ते गमे तेवी प्रतिष्ठानु स्थान होय पण ते छोडता जरा परण प्रांचको अनुभवता नथी । परिभाषामा विचार करीये तो तेमने फकीर कहेवा के संसारी ए नक्की करी शकाय तेम नथी । जैन वेशमां परण अनेक वेश थया पण मन क्यांई रम्यु नहि, वेश श्रमरण नहीं छता तेमना जीवनमां संसार अने श्रामण्यनो जे तेवो नथी । पैसा कमाय छे, घर बांधे छे, पण पैसा पैसा ब्रह्मचारी छे, परण्या नथी। जया जयंतनो लग्ननो आदर्श साधुनो वेष नानपणमां स्वीकार्यो हतो, परण ते परिवर्तन कर्यु एटले कहेवाय तो ससारी अने सुमेल छे ते कोई परण परिभाषामां बांधी शकाय के घरनो मोह नथी । गृहस्थ जेम रहे छे पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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