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________________ जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त कर्म-बन्ध के कारण : सामान्य रूप से कर्म बन्धका कारण जीव की कषायात्मक मन-वचन-काय की प्रवृत्तियां हैं। किन्तु कौन-सी कषायात्मक प्रवृत्तियां किन कर्म-प्रवृत्तियों को बांधती है, जैन-दर्शन इसका भी सूक्ष्म विवरण प्रस्तुत करता है। किसी के ज्ञानार्जन में बाधा उपस्थित करना, उसके ज्ञान में दूषण लगाना आदि कुटिल वृत्तियां ज्ञानावरण कर्म-प्रकृति का बंध करती हैं । इसी प्रकार किसी के सम्यकदर्शन में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करने से दर्शनावरणीय कर्म बंधता है। सज्जन पुरुषों की निंदा एवं उनके प्रति क्रोधादि कषायों के तीव्र भाव उत्पन्न करने से मोहनीय तथा दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं शक्ति जीवन की इन सामान्य प्रवृत्तियों में विघ्न उपस्थित करने से अन्तराय कर्म का बध होता है । स्वयं या दूसरे को दुःख, शोक, बध प्रादि रूप पीड़ा देने से असाता वेदनीय एवं जीवों के प्रति दया भाव, अनुकम्पा आदि करने से सातावेदनीय कर्म बंधता है। इसी असाता और साता वेदनीय कर्मों के अनुसार पाप-एवं पुण्य की स्थति होती है । यद्यपि कर्मों का बन्ध दोनों से होता है। सांसारिक कार्यों में प्रति आसक्ति प्रति परिग्रह नरकायु का, मायाचार तिर्यञ्च आयु का, अल्पारम्भ, अल्प परिग्रह व स्वभाव की मृदुता मनुष्य प्रायु का तथा संयम व तप देवायु का बंध कराते हैं । परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा आदि नीचगोत्र के, तथा इनसे विपरीत प्रवृत्तियां एवं मान का प्रभाव और विनय आदि उच्च गोत्र-बन्धन के कारण हैं। मन-वचन-काय योगों की वक्रता एवं कुत्सित क्रियाएँ आदि अशुभ नाम कर्म का बन्ध कर जीव को कुरूप बनाती हैं तथा इससे विपरीत सदाचरण शुभ नाम कर्म का बंध कर जीव को सुन्दर तथा तीर्थकर बनने की भी क्षमता प्रदान करता है। कर्मों की स्थिति एवं शक्ति : इस प्रकार नाना प्रकार की क्रियानों द्वारा जब विविध कर्म-प्रकृतियां बंध को प्राप्त होती हैं तभी उनमें जीव के कषायों की मंदता व तीव्रता के अनुसार यह गुण भी उत्पन्न हो जाता है कि वह बंध कितने काल तक सत्ता में रहेगा और फिर अपना फल देकर झड़ जायगा। पारभाषिक शब्दावली में इसे कर्मों का स्थिति बन्ध कहा है। यह स्थिति जीवों के परिणामानुसार तीन प्रकार की होती है-जधन्य मध्यम और उत्कृष्ट । कर्मों का स्थिति-बंध होने के साथ उनमें तीव्र व मन्द फलदायिनि शक्ति भी उत्पन्न होती है। इसी के अनुसार कर्म फल देते हैं। कर्मों का फल : कर्म किस प्रकार फल देते हैं, कर्म-सिद्धान्त के प्रतिपादन के समय, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। अन्य दर्शनों में तो जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र और उसका फल भोगने में परतन्त्र माना गया है। ईश्वर ही सब को अच्छे-बुरे कर्मों का फल देता है। किन्तु जन-दर्शन का कहना है कि कर्म अपना फल स्वयं देते हैं। उसके लिए किसी न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है । जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के साथ जो कर्म-परमारण जीवात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेष का निमित्त पाकर उस जीव से बंध जाते हैं, उन कर्म परमाणुनों में शराब और दूध की तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालने की शक्ति रहती है, जो चैतन्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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