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________________ जैन दर्शन का कर्म सिद्धांत [ ३४१ अतः आत्मा का विकास एवं पतन इसी मन पर ही आश्रित है । जैन-दर्शन में जहां मन को चंचल और दुर्जय कहा गया वहां उसको वश में करने की दिशा भी प्रदान की गई है । संयम एवं ध्यान की एकाग्रता मन को स्थिर करती है। मन के निग्रह से पांचों इंद्रियां वश में हो जाती हैं और इन छहों पर विजय प्राप्त कर लेने से सारी विषय-वासना अपने ग्राप तिरोहित हो जाती है। जीवन में एक सन्तुलित गतिशीलता आ जाती है। प्रतः कर्म बन्धन में मन प्रधान कारण है। उपरोक्त साधनों से कर्म परमाणु प्रात्मा के समक्ष दो तरह से आते हैं और उसमें मिल जाते हैं। प्रथम काय प्रादि योगों की साधारण क्रियाओं के द्वारा और दूसरे क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार तीव्र मनोविकार रूप कषायों के वेग से प्रेरित होकर । प्रथम प्रकार के कर्माश्रव को मार्गगामी कहा गया है, क्योंकि उसके द्वारा आत्मा और कर्म प्रदेशों का कोई स्थिर बन्ध उत्पन्न नहीं होता। कर्म-परमाणु पाते हैं और चले जाते हैं। जिस प्रकार किसी विशुद्ध सूखे वस्त्र पर बैठी धूल शीघ्र झड़ जाती है, देर तक वस्त्र से चिपटी नहीं रहती। इस प्रकार का कर्माश्रव समस्त संसारी जीवों के निरन्तर हा करता है। क्योंकि उनके किसी न किसी प्रकार की मानसिक, शारीरिक व वाचिक क्रिया सदैव हया ही करती है। किन्तु इसका कोई विशेष परिणाम आत्मा पर नहीं पड़ता । परन्तु जब जीव की मानसिक आदि क्रियाएँ कषायों से युक्त होती हैं, तब आत्म-प्रदेशों में एक ऐसी परपदार्थ ग्राहिणी दशा उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण उसके सम्पर्क में आने वाले कर्म परमाणु उससे शीघ्र पृथक नहीं होते । यथार्थतः क्रोधादि विचारों की इसी शक्ति के कारण उन्हें कषाय कहा गया है। सामान्यतः वह वृक्ष के दूध के समान चेप वाले द्रव पदार्थों को कषाय कहते हैं, क्योंकि उनमें चिपकने की शक्ति होती है। उसी प्रकार क्रोध, मान आदि मनोविकार जीव में कर्म परमारणों का आश्लेष कराने में कारणीभूत होने के कारण कषाय कहलाते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो जिन मनोविचारों से आत्मा कलुषित हो जाय एव मन में विकार पैदा हो जाय उन्हें कषाय कहते हैं । इस सकषाय अवस्था में उत्पन्न हुआ कर्माश्रव अपना कुछ न कुछ प्रभाव दिखलाये बिना आत्मा से पृथक नहीं होता। अतः कषाययुक्त कर्मों का ही हमें फल भुगतना पड़ता है। कर्म सम्बन्ध अनादि : स्वभावतः यहाँ एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि कर्म-परमाणु अचेतन हैं और आत्मा सचेतन । तब चेतन-प्रचेतन का परस्पर मेल कैसे होता है और किस प्रकार का होता है ? अन्य दर्शनों की तरह जैन-दर्शन भी जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि मानता है । यह मानकर चलना आवश्यक भी है । क्योंकि यदि यह मानकर चलें कि सर्वथा शुद्ध आत्मा (जीव) के साथ कर्मों का बन्ध होता है तो कई विवाद उठ खड़े होते हैं। प्रथम यह कि सर्वथा शुद्ध जीव के कर्म बन्ध कैसे सम्भव है ? और यदि सर्वथा शुद्ध जीव भी कर्मबन्धन में पड़ सकता है तो मुक्ति का प्रयत्न करना ही व्यर्थ है ? मुक्त जीव भी तब कमों का कभी बंध कर सकते हैं। जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि मान लेने से उपर्युक्त प्रश्नों की गुजाइश नहीं रहती । जीव जब तक संसार में रहता है किंचित राग-द्वेष परिणामों से हमेशा लिप्त रहता है, फिर भी उसकी सचेतनता में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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