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________________ जैन दर्शन का कर्म-सिद्धान्त : जीवन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण १. कर्मवाद की तीन धाराएं: भारतीय चितकों ने अपने चितन का जो विशाल भवन निर्मित किया है, उसका स्वर्ण कलश यदि मुक्ति है तो उसकी प्राधार-शिला कर्मवाद या जन्मान्तर । कर्मवाद का विश्लेषण भारतीय विचारधारा में मुख्यतया तीन तरह से हुया है। एक तो उन अनीश्वरवादियों-जैन, बौद्ध और मीमांसक-के द्वारा जो कर्म को इतना शक्तिशाली मानते हैं कि उसके लिए किसी नियन्ता की जरूरत नहीं होती। दूसरे उन ईश्वरवादियों-विशिष्टा द्वत, शैव-द्वारा जो एक ऐसे कर्माध्यक्ष या ईश्वर को मानते हैं जो जीव को यथोचित फल देता है। और तीसरे वे अद्वतवेदान्ती एवं सांख्य हैं जो कर्म की पारमार्थिक सत्ता नहीं मानते । अविद्या के नष्ट होते ही कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। इनमें मतभेद अवश्य हैं, किन्तु यदि सब के मूल में हम जायें तो इतना सब मानते हैं कि किए हए कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है, चाहे वे अच्छे हों या बुरे । जैन दर्शन में कर्म-विज्ञान पर बहुत गम्भीर, विशद, वैज्ञानिक चिन्तना की गई है। कर्मों का इतना सूक्ष्म विश्लेषण अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। जीवन के समस्त अंगों का विश्लेषण कर्मवाद के द्वारा प्रतिपादन करना जैनों की अपनी मौलिक शोध है। यह कर्मवाद का सिद्धान्त अपने आप में इतना शक्तिशाली एवं स्वतन्त्र है कि जीवों को कर्मफल देने में उसे किसी नियंता आदि की आवश्यकता नहीं होती। अचेतन का यह चेतन पर शासन है। एकदम चौंका देने वाली बात ? लेकिन जब हम इस कर्मवाद की गहराई तक पहचते हैं तो आश्चर्य होता है उन जैन मनीषियों की बुद्धि पर जिन्होंने कितने सरल और वैज्ञानिक ढंग से जीवन को सारी गुत्थियां सुलझाकर रख दी हैं । जैन दर्शन में कर्मवाद : जैन-दर्शन में कर्मवाद कैसे प्रारम्भ हुआ और कब से इन दो प्रश्नों को, कर्म-सिद्धान्त क्या है इसके विवेचन के पूर्व, समाधित कर लेना चाहिए। विश्व की विविधता पर चिंतन करते हुए प्रायः प्रत्येक दर्शन ने उसके कारणों की खोज की। लेकिन यह कोई सरल कार्य नहीं था । जीवन का प्रारम्भ कब और क्यों हुया यह कह पाना कठिन था। कब तो अभी तक अनुत्तरित है और क्यों को ईश्वर की इच्छा से जोड़ दिया गया। अतः विश्व का विविध रूपों में परिवर्तन सब ईश्वर की कृपा है, इच्छा है। उस महान की इच्छा पूर्ति करने के हम केवल माध्यम हैं। प्राय: इसी तरह की मान्यताओं ने अन्य दर्शनों को विश्राम दे दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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