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________________ सत्यनारायण स्वामी प्रेम श्रे भगवान शांतिनाथ ने अपने पूर्वभव में एक कबूतर को शरण में रखकर जो पुण्य कार्य किया उसी के परिणामस्वरूप उन्हें तीर्थ कर-सी श्रेष्ठ पदवी और अपार ऋद्धि की उपलब्धि हुई ।' चंपक-श्रेोष्ठि ने दुष्काल के अवसर पर जो दान दिया उसके पूण्य से उसे छियानवे करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं की प्राप्ति हई।२ आदि तीर्थ कर भगवान ऋषभदेव को सेलड़ी रस देकर श्रेयांसकूमार भवमुक्ति पा गये थे।३ इनके अतिरिक्त महाकवि ने पुण्याचारियों की सारिणी में इनके भी पुण्य कर्मों का उल्लेख किया है-मेघकुमार, अयवंतिसुकुमाल, धन्ना सार्थवाह, चंदनबाला, सुमुख गाथापति गोभद्र सेठ, मूलदेव, बलदेव मुनि, सुव्रत साधु, सनत्कुमार, बलभद्र, ४ वस्तुपाल-तेजपाल, कुलध्वजकुमार, सती सुभद्रा, धन्ना अरणगार, रावण और श्रेणिक राजा ५ तथा प्रदेशी ६ आदि । इसी प्रकार के अन्य अनेक विवेकी जीव पुण्य के प्रभाव से सुखी हो चुके हैं, हैं और आगे भी होंगे। (६) संतोष छत्तीसी इस छत्तीसी की रचना कवि ने सं० १६८४ में लूणकरणसर के चातुर्मास में की थी। इसमें भी कुल ३६ पद हैं। वर्ण्य-विषय __ प्रस्तुत कृति में कवि ने कहा है-संपूर्ण वैर-विरोधों से विमुक्त हो प्रत्येक सहधर्मी को दूसरे के साथ बड़े प्रेम और सौहार्द के साथ व्यवहार करना चाहिने। ऐसे व्यवहार को संतोष कहा गया है, समता कहा गया है। सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और नवकार-मंत्र आदि की सिद्धि भी रागद्वेष वालों को नहीं होती अपितु उन्हें होती है जो समता का व्यवहार करते हैं, संतोषपूर्वक रहते हैं। अरिहंत देव ने भी यही बतलाया है १. सरणागत राख्यउ पारेवउ, पूरव भव परसिद्ध जी। शांतिनाथ तीर्थ कर पदवी, पाम्या चक्रवर्ती रिद्ध जी ।।४।। २. चंपक सेठ कीधी अनुकपा, दीधू दान दुकाल जी। कोडि छन्नु सोनइया केरी, विलसइ रिद्धि विसाल जी ॥१५॥ ३. उत्तम पात्र प्रथम तीर्थ कर, श्री श्रेयांस दातार जी । सेलड़ी रस सूधउ बहरायो, पाम्यउ भव नउ पार जी ।।६।। ४. रूप थकी अनरथ देखी नइ, गयो बलभद्र वनवास जी। तप संयम पाली नई पहुंतउ, पांचमइ स्वर्ग आवास जी ॥१८॥ ५. राणे रावण श्रेणिक राजा, अरच्या अरिहंत देव जी । बेहुं गोत्र तीर्य कर बांध्या. सुरनर करस्यै सेव जी ॥३२॥ ६. केसी गुरु सेव्यउ परदेसी, सूर उपनो सुरिपाभ जो । चार हजार बरस एक नाटक, आगे अनंता लाभ जी ।।३३।। ७. इम अनेक विवेक धरंतां, जीव सूखिया थया जाण जी। संप्रति छै सुखिया वलि थास्य, पूण्य तरण परमारण जी ।।३४।। तिम संतोष छत्तीसी कीधी, लूणकरणसर मांहि जी । भेल धयउ साहमी मांहो मांहि, प्राणंद अधिक उच्छाह जी ॥३५।। X Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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