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________________ २ ] पं० सुखलाल संघवी मरणे केटलांक खास जैन धर्म-पुस्तको थोड़ा समयमां कंठस्थ करी लीघां अने जारणी लीधां; परन्तु जिज्ञासाना वेगना प्रमाणमां त्यां अभ्यासनी सगवड न मली । अने प्रकृति स्वातंत्र्य न सहन करी शके अवा निरर्थक रूढिबंधन खटक्यां । तेथीज केटलांक वर्ष बाद धरणाज मानसिक मंथन ने अंते छेवटे असम्प्रदाय छोड़ी ज्यां वधारे अभ्यासनी सगवड होय तेवा कोइ पण स्थान मां जवानो बलवान संकल्प कर्यो । उज्जयिनीनां खडरोमाँ फरतां फरतां संध्याकाले सिप्राने किनारे तेणे स्थानकवासी साधुवेष छोड्यो । अने अनेक आशंकायो तेम ज भयना सखत दाबमां रातोरात ज पगपाला चाल नीकच्या । मोदे सतत बांधेल मुमतीने लीधे पडेल सफेद डाधाने कोइ न अोलखे माटे भूसी नाखवा तेमणे अनेक प्रयत्नों कर्या । पाछलथी कोइ अोलखी पकडी न पाडे माटे अंक बे दिवसमा घणा गाउ कापी नाख्या। अंदोडमां राते अंकवार पाणी भरेला कूवामा तेश्रो अचानक पडी गयेला । रतलाम अने तेनी आजूबाजूनां परिचित गामो माथी पोतानी जातने बचावी लई क्यांक अभ्यास योग्य स्थान अने सगवड शोधी लेवाना उद्वेगमां तेमणे खावा पीवानी पण परवा न राखी । पण पुरुषार्थीने वधु अचानक ज सांपडे छे । कोई गामडमा श्रावको पजुसणमां कल्पसूत्र वंचाववा कोई यति के साधुनी शोध मा हता । दरमियान किसनजी पहोंच्या । कोईमां नहि जोयेलु अव त्वरित वाचन अगाडियानोने अमनामां जोयु अने त्यांज तेमने रोकी लीधा । पजुसरण बाद थोड़ी दक्षिणा बहु सत्कार पूर्वक प्रापी। कपडा अने पैसा बिनाना किसनजी ने मुसाफरी भातुमल्यु अने तेमरणे अमदाबाद जवानी टिकिट लीधी। अंमणे सांभले लु के गुजरातमाँ अमदाबाद मोटु शहेर छ अने त्यां मूर्तिपूजक सम्प्रदाय मोटो छे। श्रे संप्रदायमां विद्वानो बहु छे अने विद्या मेलववानी बधी सगवड छ । प्रा लालचे भाई अमदाबाद पाव्या, पण पुरुषार्थनी परीक्षा अंक ज आफते पूरी थती नथी। अमदावादनी प्रसिद्ध विद्याशाला आदिमाँ क्यांय घडो थयो नहिं । पैसा खूट्यां। ग्रेक बाजू व्यवहारनी माहिती नहि अने बीजी बाजु जातने जाहेर न करवानी वृत्ति अने त्रीजी बाजु उत्कट जिज्ञासा, अबधी खेंचतारणमां अमने वहु ज सहेवु पड्यु। अंते भटकतां मारवाडमां पाली गाम मा प्रेक सुदरविजयजी नामना संवेगी साधुनो भेट थयो । जेप्रो प्रत्यारे परण वृद्धावस्थामा विचरे छे, अते प्रत्यार सुधीनां वधां परिवर्तनोमां सरल भावे प्रेम कहेता रहे छ के ते जे करशे ते ठीक जहशे। प्रेमनी पासे तेमनी संवेगी दीक्षा लीधी मने जिनविजयजी थया । प्रेमना गुरु तरीकेनो पाश्रय तेमणे विद्वाननी दृष्टिग्रे नहि पण तेमणे प्राश्रयथी विद्या मेलववामां वधारे सगवड मल श्रे दृष्टिने लीधेलो। आ बीजु परिवर्तन पण अभ्यासनी भूमिका उपर ज थयू। थोड़ा बखत बाद मात्र अभ्यासनीं विशेष सगवड मेलववा माटे जिनविजयजी अंक बीजा जैन सुप्रसिद्ध साधुना सहवासमां गया। परन्तु विद्वत्ता अने गुरुपदना मोटा पट्ट उपर बेठेल सांप्रदायिक गुरु प्रोमांथी बहुज पोछाने अखबर होय छे के क्यु पात्र केवुले अने तेनी जिज्ञासा न पोषवाथी के पोषवायी शुशु परिणाम प्रावे ? जो के अंसहवासथी तेमने जोवांजाणवान विस्तृत क्षेत्र तो मल्यू पण जिज्ञासानी खरी भख मांगी नहि । वली में उद्वेगे तेमने बीजाना सहवास माटे ललचाव्या अने प्रसिद्ध जैन साधु प्रवर्तक कांति विजयजीना सहवासमां तेत्रो रह्या । त्यां तेमने प्रमाणमा घणीज सगवड मली अने तेमनी स्वत: सिद्धि तिहासिक दृष्टिने पोषे अने तप्त करे ग्रेवां घरणांज महत्वना साधनो मल् यां। गमे त्यां अने गमे तेवा प्रतिकूल के अनुकूल सहवासमां तेश्रो रहेता छतां पोतानी जन्मसिद्ध मितभाषित्व अने अकान्त प्रियतानी प्रकृति प्रमाणे, अभ्यास वाचन अने लेखन चालु ज राखता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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