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________________ समयसुन्दर और उनका छत्तीसी साहित्य [ ३२७ - यतियों को अपना पंथ बढ़ाने का सुअंवसर मिल गया। लोग पथ-विचलित होने लगे। धंधा उठने से धर्म और धैर्य की जड़ें खिसक उठीं। श्रावकों ने साधुओं की सार-संभाल छोड़ दी । शिष्यों ने भूख से बाधित हो उदरपूर्ति के लिये गुरुपों को ही पत्र-पुस्तकें, वस्त्र-पात्रादि बेचने के लिए विवश किया।' धर्म-ध्यान भी लुप्त होने लग गया था । भूख के मारे भगवान का भजन किसे भाता है। श्रावक लोगों ने मन्दिरों में दर्शन करने जाना छोड़ दिया। शिष्य ने शास्त्राध्ययन बन्द कर दिया। गुरुवंदन की तो परंपरा ही उठ गई । गच्छों में व्याख्यान-परंपरा मंद पड़ गई । लोगों की बुद्धि में फेर पा गया था। नेक लक्षाधीश साहकारों की सहायता के उपरांत उस 'भुखमरी' में अनेक मनुष्य बेमौत मरे। उनकी अथियाँ उठाने वाले ही नहीं मिल रहे थे। घरों में हाहाकार मच रहा था और गलियों तथा सड़कों पर शवों की दुर्गध व्याप्त थी।३ अनेक सूरि-गच्छपतियों को भी हत्यारे काल ने अपने गाल में ले लिया। ...... स्वयं कवि पर भी इस प्रबल दुष्काल के कई तमाचे पड़े। पौष्टिक भोजन के प्रभाव में उसकी काया कृश हो गई। उपवासों से रही-सही शक्ति भी चली गई। धर्मध्यान और गुरुगुणगान ही उसके जीवनपथ का संबल रह गया था ।४ अंसे भीषण अकाल के समय यद्यपि शिष्यों ने कवि की कम ही सार-संभाल ली, किंतु अन्य अनेक श्रावकों और सेवाव्रतियों ने यथासामर्थ्य साधुओं और भिखारियों आदि के भोजन की व्यवस्था की जिनमें प्रमुख थे-सागर, करमसी, रतन, बछराज, ऊदो, जीवा, सुखिया वीरजी, हाथीशाह, शाह लटूका, तिलोकसी ग्रादि । अहमदाबाद में प्रतापसी शाह की प्रोल में रोटी और बाकला बांटने की व्यवस्था १. दुखी यथा दरसणी, भूख प्राधी न खमावइ । श्रावक न करी सार, खिरण धीरज किम थायइ । चेले कीधी चाल, पूज्य परिग्रह परहउ छांडउ। पुस्तक पाना बेचि, जिम तिम अम्हनई जीवाडउ ।। .. (स. कृ. कु. छंद १३, पृष्ठ ५०५) २. पडिकमणउ पोसाल करण को श्रावक नावइ; देहरा सगला दीठ, गीत गंधर्व न गावइ । शिष्य भइ नहीं शास्त्र, मुख भूखइ मचकोड; गुरुवंदण गइ रीति, छती प्रीत मारणस छोडइ । बखाण खाण माठा पड़या, गच्छ चौरासी एही गति; ' .. 'समयसुदर' कहइ सत्यासीया, काइ दीधी तईए कुमति ।।१५।। (स. सु. कृ. कु. पृ० ५०५) .३. मूसा घणा मनुष्य, रांक गलीए रडवडिया; सोजो वल्यउ सरीर, पछई पाज माहे पडिया । कालइ कवरण बलाई, कुण उपाडइ किहां काठी; तांणी नाख्या तेह, मांडि थइ सगली माठी। दुरगंधि दशौदिशि ऊछली, माडा पाड्या दीसइ मूसा । समयसुदर कहइ सत्यासीया, किरण धरि न पड्या कूकुरा ॥१७॥ (स. कृ. कु. पृ०५०६) . पछि प्राव्यउ मो पासि, तू पावतउ मई दीठउ; दुरबल कीधी देह, म करि काउ भोजन मीठउ । दूध दही घृत घोल, निपट जीमिवा न दीधा । शरीर गमाडि शक्ति, कई लंघन परिण कोधा । धर्म ध्यान अधिका धर्या, गुरुदत्त गुरगणउ पिरण गुण्यउ; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, तुनै हाक मारिनइ मई हण्यउ ।। १६।। (स. कृ. कु. पृ० ५०७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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