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________________ संस्कृत की शतक परम्परा [ ३२३ का अभिनव संग्रह है. जिसे 'पद्धति' नामक दस भागों, मुखबन्ध, अञ्जलिबन्ध तथा परिशिष्ट में विभक्त किया गया है। भारतीय राजनीति, समाज, धर्म, प्रशासन, वर्तमान मंहगी, खाद्यान्न का अभाव, भ्रष्टता, कृत्रिम तथा छलपूर्ण जीवनचर्या आदि विविध विषयों पर कवि ने प्रबल प्रहार किया है कविता में अपूर्व रोचकता तथा नूतनता है । कवि ने संस्कृत-काव्य की घिसी-पिटी लीक को छोड़कर अभिनव शैली की उद्भावना की है । संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिये ऐसी रचनाओं की विशेष आवश्यकता है, जो समकालीन जीवन के निकट हो तथा उसकी समस्यायों का विवेचन प्रस्तुत करें। वर्तमान प्रशासन में परिव्याप्त घूसखोरी पर, उपनिषदों के अश्वत्थ के प्रतीक से, कवि ने मर्मान्तक व्यंग किया है । उपनिषदों में सृष्टि की तुलना एक ऐसे काल्पनिक वृक्ष से की गयी है। जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाए नीचे हैं। यह सृष्टितरु शाश्वत है । उसका उच्छेद करने की क्षमता किसी में नहीं है । परन्तु कवि की कल्पना है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में मानव ने सृष्टि के बृहत् अश्वत्थ के उन्मूलन के लिये अनेक उपकरणों का आविष्कार कर लिया है। पर घूस के बद्ध मूल अश्वत्थ का उच्छेत्ता आज भी नहीं है, न अतीत में था और न भविष्य में होगा। ऊर्ध्व मूलमधश्च यस्य वितताः शाखाः, सुवर्णच्छदः कस्योत्कोचतर्जगत्यविदितः यद्यप्यरूपोऽगुणः । छेत्ता कश्चिदुदेति संसृतितरोः छेत्तास्य वृक्षस्य तु नाभून्नास्ति न वा भविष्यति पुमान् ! अश्वत्थ एषोऽक्षयः ।। रामकलास पाण्डेय का (६१) भारत शतक 'संस्कृत-प्रतिभा' में तथा हजारीलाल शास्त्री का (१२) शिवराज विजय शतक 'दिव्य ज्योति' (शिमला) में प्रकाशित हुए हैं। ये दोनों ऐतिहासिक काव्य हैं। भारतशतक में भारत के गौरवशाली अतीत तथा वर्तमान स्थिति का चित्रण है। शिवराजविजय शतक में छत्रपति शिवाजी का चरित वर्णित है। इनके अतिरिक्त निम्नांकित शतकों की जानकारी जिनरत्न कोश, आमेर शास्त्र भण्डार तथा राजस्थान ग्रन्थ-भण्डारों की सूचियों से प्राप्त हुई है। (६३-६४) चाणक्य शतक तथा नीतिशतक की रचना का श्रेय चाणक्य को दिया जाता है। किन्तु यह चारणक्य चन्द्रगुप्त के प्रधानामात्य विष्णुगुप्त चाणक्य कदापि नहीं हो सकता। प्राचीन भारत में साहित्यिक रचनाओं को सम्बद्ध विषय के लब्धप्रतिष्ठ प्राचार्यों के नाम से प्रचलित करने की बलवती प्रवृत्ति रही है। इसी प्रकार वररुचि के नाम से दो (६५-६६) शतक उपलब्ध हैं-शतक तथा योगशत । शतक कोषनथ है। इसकी एक अपूर्ण प्रति जैन मन्दिर संधीजी, जयपुर में सुरक्षित है। बेष्टन संख्या६९८ । योगशत अायुर्वेद से सम्बन्धित रचना है। श्री मल्ल अथवा त्रिमल्लक का (६७) श्लोक भी आयुर्वेद ग्रन्थ है। दोनों की हस्तलिखित प्रतियां आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध हैं । योगशत की प्रति खण्डित है । प्रथम तथा अन्तिम पृष्ठ नहीं है। योगीन्द्रदेव के (१८) दोहशतक की एक प्रति ठौलियों के मन्दिर जयपुर में है । वैष्टन संख्या १२० । अज्ञात कवियों के दो (88-१००) दृष्टान्त शतक ज्ञात है । एक सुभाषित संग्रह है, दूसरा अलङ्कार ग्रन्थ । (१०१-१०६) अज्ञात कवियों के गोरक्ष शतक, आत्मनिन्दा शतक, आत्मशिक्षा शतक, मुर्ख शतक, गौडवंशतिलक कृत वृद्धयोग शतक तथा शिववर्मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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