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________________ ३१६ ] संस्कृत की शतक-परम्परा शतक में कवि ने भगवान् शङ्कर से अपनी शरण में लेने, दारिद्र य-निवारण, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त तथा भक्ति भावना स्फूरित करने की प्रार्थना की है। काव्य को सामान्यत: दो खण्डों में विभक्त । किया जा सकता है। पूर्वार्ध में पाराध्यदेव की कृपा-पात्रता प्राप्त करने की प्रात्मनिवेदन-पूर्ण विह्वलता का प्रतिपादन है। कवि अर्ध नारीश्वर से अपने अर्ध भक्त को, उसके समस्त दोष भुला कर, औदार्य पूर्वक स्वीकार करने की याचना करता है। वपुरर्ध वामार्धं शिरसि शशी सोऽपि भूषणं तेऽर्धम् । मामपि तवार्ध भक्तं शिव शिव देहे न धारयसि ।। अपराध में कवि ने अपने मन तथा ज्ञानेन्द्रियों को शिव-आराधना में तत्पर होने को प्रेरित किया है। चेतः शृणु मदवचनं मा कुरु रचनं मनोरथानां त्वम् । शरणं प्रयाहि शर्व सर्व सकृदेव सोऽर्पयिता ।। प्रवाहमयी शैली तथा रचना-चातुर्य के कारण आर्याशतक स्तोत्र-साहित्य की अनूठी कृति है। चमत्कार पर्ण भावों को ललित तथा मधर भाषा में व्यक्त करने की कवि में अद्भुत क्षमता है। मधुर हास्य की अन्तर्धारा काव्य में रोचकता का सञ्चार करती है। श्री गोरे ने डॉ० राघवन की संस्कृत टीका तथा अपने अंग्रेजी अनुवाद सहित इसका पूना से सम्पादन किया है। काव्यमाला के द्वितीय गुच्छक के सम्पादक ने एक पाद-टिप्पणी में अप्पयदीक्षित के (३०) उपदेशशतक का उल्लेख किया है। सम्भवतः यह उनके वंशज नील कण्ठ दीक्षित की कृति है । शंकरराम शास्त्री-सम्पादित 'माइनर वर्क्स ऑव नील कण्ठ दीक्षित' (मद्रास, १९४२) में नील कण्ठ दीक्षित (१७ वीं शती) के (३१-३३) तीन शतक प्रकाशित हुए हैं । समारञ्जन शतक में विद्वन्मण्डली के मनोरञ्जनार्थ विद्वत्ता, दान, शौर्य, सहिष्णुता, दाम्पत्य प्रणय आदि मानवीय सद्गुणों का १०५ अनुष्टुप छन्दों में चित्रण हुआ है। दीक्षित जी की शैली अतीव सरल तथा प्रवाहपूर्ण है। शतक की कतिपय सूक्तियां बहुत मार्मिक हैं। उद्यन्तु शतमादित्या उद्यन्तु शतमिन्दवः । न विना विदुषां वाक्यनश्यत्याभ्यन्तरं तमः ।। शतक की पुष्पिका में कवि ने विस्तृत आत्म परिचय दिया है । इति श्रीभरद्वाज कुल जलधिकौस्तुभ श्रीकण्ठ मत प्रतिष्ठापनाचार्य चतुरधिकशतप्रबन्ध निर्वाहक महाव्रतयाजि श्रीमदप्पय दीक्षित सोदर्य श्रीमदाच्चा दीक्षित पौत्रेण श्री नारायण दीक्षितात्मजेन श्री भूमिदेवी गर्भ सम्भवेन श्री नीलकण्ठ दीक्षितेन विरचितं सभारञ्जन शतकम् । वैराग्य शतक विरक्ति तथा इन्द्रियवश्यता की महिमा का गान है। प्रयास तो अनेक करते हैं, किन्तु विषय-सेक्न का परित्याग विरले ही कर सकते हैं । शतश: परीक्ष्य विषयान्सधो जहति क्वचित्क्वचिद् धन्याः । काका इव वान्ताशनमन्ये तानेव सेबन्ते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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