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________________ २९४ ] पृथ्वीराज विजय-एक ऐतिहासिक महाकाव्य "तस्य सान्वय वद्धनस्य दयिता देवी मनोरज्जिनो देवाधीश समद्य तेः सम भवति स्मेरस्फूर होहदा । काले सा सुबुवे जयन्त सुषमं शर्म प्रकाशे ग्रहैरूच्चस्थ रभिसूचित स्थितितमो व्युत्सारि दीप्ति सुतम् ।।७०१।। अन्या काकिल सोष्यते कुलवधू रूद्दाम धामाद भुतं बाल लोक मनोहराक्ततिमिति प्रोचुनरेश जनाः । सोऽप्येनं किल काकिलामिधमथा संकथ्य सार्थामिधं देव्यन्या मम काकिलेति नृपतिर्यातिस्म चित्त मुदम् ।।२।। (३) महाराज काकिलदेव (माघ शु० ७ सं० १०६३ से वैशाख शु० १० संवत् १०६६) अपने पिता श्री दूलहराय की आज्ञा लेकर महाराज काकिल ने 'भाण्डारेज' को जीतने के लिए प्रस्थान किया था। लिखा है ताताज्ञां परिगृह्य दैवतमपि स्मृत्वा च नत्वा द्विजान् वृद्धा नष्यपरान् परन्तपतति वहिानि वृन्दैभृताम (१) । सेनां बोध्वरनयन्न पसुतो भीमप्रभां पतिभिः भीण्डारेजि पुरीममण्डित वयुर्वीरो विजेतु ययौ ।।८।। 'जयवंश महाकाव्य' में श्रीसीताराम भट्ट पर्वणीकर ने भी इस घटना की पुष्टि की है। वे लिखते हैं "राजा कदाचित्खलु सौढदेविघ्र हीतुकामोऽजनि भाण्डरेजीम् । स्वभाव एवैष हि विक्रमस्य युयुत्सुता प्रत्यहमुद्भवेद्यत् ।।१६।। विचार्य चञ्चद् भुजदण्डवीर्य नृपोत्तमः काकिलमादिदेश । कुमारविक्रान्तिदिहथुचित्तः स तु प्रणम्याथ युधे प्रतस्थे ॥१७॥ ( द्वितीयसर्ग-पृष्ठ-८) इसके पश्चात् महाराज दुलहराय की दक्षिणयात्रा का उल्लेख है। यह वर्णन प्रायः सभी ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिलता है। परन्तु इसमें कुछ मतभेद है। 'वंशावली' में एक स्थान पर लिखा है कि'आयुष्य के अन्त में दुलैरायजी ग्वालियर के राजा की अर्जी पर वहां गये थे और दक्षिण से आये हए शत्रुनों को परास्त कर ग्वालियर के जयसिंह को सहायता दी थी।" एक अन्य वंशावली में लिखा है कि"ग्वालियर से दुलहराय घायल होकर आये थे और खोह में आकर संवत् १०९३ में परलोकवासी हए थे।" वंशावली की तीसरी प्रति के ११वें पृष्ठ पर लिखा है कि- "दुलैरायजी ग्वालियर के युद्ध में विजयी हुए थे और वहीं मरे थे।" 'वीर विनोद' में भी ग्वालियर में ही मरने का उल्लेख है। राजस्थान के इतिहास लेखक कर्नल जेम्स टाड ने तो इन सभी से भिन्न लिखा है तथा मोरणों के द्वारा उनकी मृत्यु का उल्लेख किया है। वे तो काकिलजी की उत्पत्ति भी दुलहराय के मृत्यु की पश्चात् बतलाते हैं जो किसी भी ऐतिहासिक ग्रन्थ या प्रमाण से पुष्ट नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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