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________________ डॉ० प्रभाकर शास्त्री [२८६ इसके पश्चात् दो पद्य शृगारिक है जिसमें नववधु का सज्जित होकर अपने वीर पति के पास पाना तथा पति का उसके साथ विलास वरिणत है। रानी गर्भवती होती है तथा पुसवनादि क्रियायें यथाविधि सम्पन्न की जाती हैं। श्री दूलहराय का जन्म होता है "दानप्रीत मही राभिहितगा रागाभि शर्माश्रया देवी दर्शन लस्यमान महिमा देव्या विजज्ञे सुतः । भूपालस्य शुभास्यया अहवरैरावेद्य मानोदये लग्ने लग्नपतो बलीयसि पिता प्राचेथतं दुल्लहम्" ॥६३१।। क्रमशः बाल्यकाल व किशोरावस्था को पार कर दूलहराय युवक बने । तरुणावस्था में उनकी आमा दर्शनीय थी। विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ । जैसाकि इतिहासों में लिखा है-श्री दूलहराय ने एक ही विवाह किया था। वह भी मोंरा के चौहान रालणसिंह की पुत्री सुजान कुवरी के साथ । चौहान रालणसिंह का सा (द्यौसा) पर प्राधा अधिकार था। इन्होंने इसे दूलहराय को दहेज में दे दिया था और कुछ सैनिक सहायता भी दी थी, जिसकी सहायता से दूलहराय ने मीणों व बजगूजरों को परास्त कर सम्पूर्ण दौसा अपने अधिकार में कर लिया था । ढूढाड प्रदेश में इन कछवाहों का यह प्रथम स्थान था । इसे ही उन्होंने राजधानी बनाया था। "वीर श्रीरुचिराश्रितो गुणगणरूज्जृम्भमाणो बल निघ्नन् वैरिजनान् गजानिव बली पंचाननो हेतिमान । राजेन्द्र प्रति नन्दितेन गुरूणा राजन्यकन्यां शुभां चन्द्रास्यां प्रतिलम्भितोधिशु शुभे चन्द्रो यथा, रोहिणीम्" ॥६३५ "जित्वा सत्वर जित्वरो रिपुजनान् द्यौसा चलस्थायिनो रम्यं स्थानमवेक्ष्य स क्षितिपजावस्तु समीहां दधौ ।। प्राहय स्वजनान् स्वकं च जनकं तद् गोपनाय प्रभु तथैवोर्थ्य निजोजिसाधू विजयी प्रत्यथिनां निर्ययो" ॥६३६ इसको जीतने पर श्री दूलहराय ने 'माची' पर अधिकार किया। "हितैषी" (जयपुर अंक) में 'जयपुर के राजवंश' का वर्णन करते हुए-पं० श्री हनुमान शर्मा (चोमू) ने लिखा है "अपने पिता की आज्ञानुसार श्री दूल्हरायजी ने सर्वप्रथम 'माची' के मीणों पर चढाई की, जिसमें वे असफल रहे। उस फतह का मीणों ने एक जलसा किया। सब मीणे मदिरा पीकर जब मस्त हो रहे थे तब इन्होंने पुनः धावा किया और उन्हें मार भगाया, तथा उनके राज्य पर अधिकार स्थापित कर लिया । इस विजय के उपलक्ष में दूलहराय ने माची से तीन कोस पर एक देवी का मन्दिर बनवाया जो जमवायमाता के नाम से प्राद्यावधि वर्तमान है।" (पृ० ५१) कुछ पद्यों में युद्ध का वर्णन किया गया है 'सैन्यं शत्रुविभीषणं गजरथ व्यूहैहया रोहिभिः वीरभूरिपदाति वर्ग शतकैरप्रेसरैर्दुर्जयम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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