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________________ प्रेमलता शर्मा [ २८१ प्रयोक्त्रपलक्षणं तेन ह्यत्यन्तं संवितप्रवेशलाभेन तु गातुः फलयोगो गन्धत्वात् । इति प्रयोक्तृगतमत्र मुख्यं फलम् । न तु गानमिव मुख्यतया श्रोतृनिष्ठम् । गानं हि केवलं प्रीतिकार्ये वर्तते ( अभिनव भारती ) पूर्व रङ्गादावदृष्ठसिद्धौ संयतगीतकवद्ध मानादि धुवागाने तु दृष्टफले गायनस्येव सोऽस्तु (अभिनव भारती नाट्य शास्त्र चतुर्थ खंड पृ. १५२ ) प्रयुज्यते । व्यापारः । नाट्य शास्त्र में मार्ग देशी का उल्लेख नहीं है, किन्तु संगीत के लिये 'गान्धर्व' संज्ञा है जो बाद में चल कर गीत-प्रबन्ध के प्रकरण में मार्ग की पर्यायवाची बन गई थी ( दृष्टव्य संगीत रत्नाकर का निम्न उद्धरण) । 'गान्धर्व' को देवताओं का अत्यन्त इष्ट अर्थात् प्रिय बताया गया है। अभिनवगुप्त ने उसे दृष्टादृष्ट फलप्रद कहा है और उस के फल को मुख्यतया प्रयोक्तृगत बताया है । दूसरी ओर 'गान' का फल मुख्यतया श्रोतृनिष्ठ कहा है । यहीं पर मार्ग और देशी का मूल तत्व मिल जाता है । मार्ग प्रात्मनिष्ठ होने से उसमें मुख्यफल प्रयोक्ता को ही मिलता है और देशी में श्रोता के प्रति लक्ष्य रहने के कारण उसका फल मुख्यतया श्रोतृनिष्ठ अर्थात् श्रोताओं का रंजनमात्र होता है । पुनः ३१ वें अध्याय में जहाँ भरत ने शुद्ध गीतकों के प्रकार कहे हैं वहाँ भी अभिनवगुप्त ने वर्द्धमानादि शुद्ध गीतकों को प्रदृष्ट फलप्रद को दृष्ट-फल-प्रद । भरत के परवर्ती काल में शुद्ध गीतक पर देशी प्रबन्धों का विकास हुआ। इस प्रकरण में भी जाते हैं । मार्ग का अंग माने गये मार्ग और देशी के बीज बताया है और ध्रुवागान और ध्रुवाओं के आधार नाट्यशास्त्र में मिल ही २ - गीत - प्रबन्ध प्रकरण में --- रञ्जकः स्वरसंदर्भों गीतमित्यभिधीयते । गान्धर्व गानमित्यस्य भेदद्वयमुदीरितम् ॥१॥ अनादिसम्प्रदायं यद्गान्धर्वैः संप्रयुज्यते । नियतं यसो हेतुस्तद्गान्धर्व जगुर्बुधाः ||२| यत्त वाग्गेयकारेण रचितं लक्षणान्वितम् । देशी रागादिषु प्रोक्तं तद्गानं जनरञ्जनम् ||३|| ३- राग - प्रकरण में- देशीत्वं नाम कामचारप्रवर्तितत्वम् 1 तदत्र मार्गरागेषु नियमः यः पुरोदितः । स देशिरागमाषादावन्यथापि क्वचिद् भवेत् ॥ ४ --- नृत्य - प्रकरण में- नाट्य मार्गञ्च देशीयमुत्तमं मध्यमं तथा अधम क्रमतो ज्ञेयं नृत्यत्रितयमुत्तमैः ।। २८६ ।। Jain Education International ( संगीत रत्नाकर ४ / १-३) (वही, २ / २ / २ पर कल्लिनाथ की टीका ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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