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________________ ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा २५३ ] प्रसिद्ध हैं ! भगवान् विष्णु के पांचवें अर्थात् वामन अवतार की कथा का विस्तृत वर्णन वामन, ४ स्कन्द, तथा हरिवंश आदि पुराणों में मिलता है । भागवत, ब्रह्म, पुराणों की इन कथाओं के अनुसार भक्त प्रहलाद के पौत्र तथा विरोचन के पुत्र राजा बलि ने देवताओं के राजा इन्द्र को परास्त कर राज्य से खदेड़ दिया । इससे दुःखी होकर इन्द्र की माता अदिति विष्णु से प्रार्थना की, कि वही स्वयं उनके पुत्र के रूप में जन्म लेकर बलि का दमन करें और स्वर्ग का ऐश्वर्यशाली साम्राज्य इन्द्र को दिलवाएं। विष्णु ने अदिति की प्रार्थना स्वीकार की और उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया । एक समय जब बलि यज्ञ करा रहा था, विष्णु उसके ऐश्वर्य की समाप्ति के लिए कपट से बौने ( वामन) ब्रह्मचारी का रूप धारण कर उसकी यज्ञशाला में जा पहुंचे : विधाय मूर्ति कपटेन वामनों, स्वयं बलिध्वंसिविडम्बिनीभयम् । नंषध चरित, १ १२४ असुरों के गुरु शुक्राचार्य को अपनी ज्ञान शक्ति से विदित हो गया कि यह वामन 'हरि' के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है । अतः उन्होंने बलि को सलाह दी कि वह किसी भी प्रकार का दान वामन को न दें । शुक्राचार्य ने कहा, "हे विरोचन के पुत्र (बलि), यह स्वयं भगवान विष्णु हैं जिसने देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए कश्यप और अदिति से जन्म लिया है । अनर्थ को बिना ध्यान में रखे हुए जो तुमने इसे दान देने की प्रतिज्ञा की है, वह राक्षसों के लिए ठीक नहीं है। यह बहुत बुरा हुमा कि कपट से बटु का रूप धारण करने वाला विष्णु तेरा स्थान, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज, यश और विद्या को छीनकर इन्द्र को देगा । सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करने वाला शरीर बनाकर यह तीन चरणों में सब लोकों का लंघन करेगा | विष्णु को सर्वस्व देकर हे मूर्ख, तू कैसे कार्य चलाएगा? यह पृथ्वी को एक पग से, दूसरे से स्वर्ग और आकाश को अपने महान् शरीर से लंघन करेगा, तो तीसरे पग के लिए स्थान ही कहां होगा ? ५ ३. भगवान् किस उद्देश्य से अवतार लेते हैं, इसका उत्तर स्वयं कृष्ण ने गीता में दिया है : परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ ४. वामन की जन्म कथा के विस्तृत विवरण हेतु देखें, वामन पुराण अध्याय ३१ । ५. एष वैरोचने साक्षाद् भगवान् विष्णुरव्ययः । कश्यपादवितेर्जातो देवानां कार्याधकः ।। प्रतिश्रुतं त्वयं तस्मै यदनर्थ मजानता । न साधु मन्ये वैत्यानां महानुपगतोऽन यः || एष ते स्थानमैश्वयं श्रियं तेजो यशः श्रुतम् । दास्यत्याच्छिद्य शक्राय मायामाणवको हरिः ॥ Jain Education International श्रीमद्भगवद् गीता, ४, ८ । त्रिविक्रमं रिमॉल्लोकान् विश्वकाय: क्रमिष्यति । सर्वस्वं विष्णवे दत्त्वा मूढ़ वर्तिष्य से कथम् ॥ क्रमतो गाँ पर्दकेन द्वितीयेन दिवं विभोः । रवं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गतिः ॥ भागवत पुराण, ८, १६, ३०-३४ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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