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________________ २४८ ] भारतीय कला के मुख्य तत्त्व ___ सच्ची कला के एक शाश्वत रूप सत्र है। उसका सौन्दर्य छीजता नहीं। उसके लावण्य की ध्वनि फिर २ कर मन में आती है । समस्त कला मानसी शिल्प है, किंतु वह देव शिल्प की अनुकृति है। कलाकार के हृदय में जो देवी प्रेरणा पाती है वही शब्द और रूप एवं अर्थ को दिव्य सौन्दर्य से प्लावित कर देती है। अलंकरण भारतीय कला अलंकरण प्रधान है। प्रारम्भ से ही कलाकारों ने अपनी कृतियों को अनेक भांति अलंकरणों से सज्जित करने में रुचि ली। अलंकरण साज-सज्जा के अभिप्राय तीन प्रकार के हैं-१, रेखाकृति (प्रधान), २-पत्तवल्लरी प्रधान, और ३-ईहामृग या कल्पना प्रसूत पशू-पक्षियों की प्राकृतियां इन अभिप्रायों के मूल रूप प्राकृतिक जगत से लिए गए है किंतु कलाकारों ने अपनी कल्पना के बल पर उन्हें अनेक रूपों में विकसित किया है। कहीं गौण प्राकृति के रूप में, कही मूल अर्चा या प्रतिभा को चारों ओर से सुसज्जित करने के लिए, कहीं रिक्त स्थान को रूपाकृति से भर देने के लिए अलंकरणों का विधान किया गया है जिनका उद्देश्य कला में सौन्दर्य की अभिवृद्धि है। किंतु शोभा के अतिरिक्त अभिप्रायों के दो उद्देश्य और थे, एक तो पारक्षा के या मंगल के लिए दूसरे विशेष अर्थों की अभिव्यक्ति के लिए इन अलंकरणों को भारतीय परीभाषा में मांगलय चिन्ह कहा गया है और उनकी रचना का द्विविध उद्देश्य माना है-शोभनार्थ एवं पारक्षार्थ । शोभा या सौन्दर्य का उद्देश्य तो स्पष्ट ही है। प्रारक्षा का तात्पर्य है अमंगल या अशुभ से मुक्ति । भारतीय सौन्दर्य शास्त्र के अनुसार शून्य या रिक्त स्थान में असुरों का बासा हो जाता है किंतु यदि वृहादिक आवास या देव गृह में मांगलिक चिन्ह लिखे जांय तो दवीश्री और रक्षा स्थान में अवतीर्ण होती है । स्वस्तिक पूर्ण घट या कमल का फुल्ला (पदुमक) को जब हम देखते हैं तो उनसे नाना प्रकार के मांगलिक अर्थ मन में भर जाते हैं। इस प्रकार के मांगलिक चिन्ह अनेक हैं वे सब भगवान की विभूतियों के कलात्मक रूप हैं। उनमें से इच्छा अनुसार एक या अनेक का वरण किया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक गज चिन्ह इन्द्र के श्वेत ऐरावत के द्योतक है, अश्व उच्चैश्रवा अश्व का प्रतीक है जो समुद्र मंथने से उत्पन्न हुया था और स्वर्ग लोक का मांगलिक पशु है। सूर्य ही तो वह विराट् अश्व है जो काल या संवत्सर के रूप में सबके जीवन में प्रविष्ट है। जब हम गौ का अलंकरण उत्कीर्ण करते हैं तो उस देव अदिति संज्ञक देव माना के दर्शन करते हैं जिसे वेदों में गौ कहा गया है । ऐसे ही नर रूप में गौ वहवृषम है जो इन्द्र या रुद्र का रूप है। इस प्रकार भारतीय कला के सुन्दर अभिप्राय धर्म और संस्कृति की पृष्ठभूमि में सार्थक हैं। गुप्त युग में लता की सरल और पेचीदी प्राकृतियां बनाने की बहुत प्रथा थी। उनके कई अच्छे नमूने घमेख स्तूप के आच्छादन शिला पट्टों पर सुरक्षित हैं । एक मूल से उठ कर लताओं के प्रतान पेचक बनाते हुए कहीं से कहीं जा मिलते हैं । एवं वल्लरियों का वह बिखरा हुआ किंतु संष्लिष्ट रूप नेत्रों को अत्यन्त प्रिय लगता है। उनसे कला को नयी रमणीयता प्राप्त होती है। इस प्रकार की पत्र रचना से उत्कीर्ण एक शिलापट्ट का भी बहुत महत्व समझना चाहिए । इसका मूल भाव यही था कि प्रकृति की जो विराट प्राणात्मक रचना पद्धति है उसी के अङ्ग-प्रत्यङ्ग पशु-पक्षी, वृक्ष और फल-फूल यक्ष, वामन, कुग्जक, मनुषादि हैं। सच्चा मनुष्य जीवन वही है जो इन सब में रुचि लेता है । बाणभट्ट ने लिखा है कि रानी विलासवती के प्रसूति ग्रह की भित्तियों को पत्र लताओं की मांगलिक प्राकृतियों से भर दिया गया था जिन पर दृष्टि डालने से रानी के नेत्रों को सुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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