SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ ] जवाहिरलाल जैन और मुनिजी फिर पूर्ववत् भारतीय विद्या भवन के निर्देशक रूप में ग्रन्थों के संपादन-प्रकाशन और विद्यार्थियों को डॉक्टरेट के अध्ययन में मार्गदर्शन करते रहे। मुनिजी के मन में देश और समाज की कठिनाइयों और समस्याओं के संबंध में सदा चितन चलता ही रहता था। आजादी के बाद खाद्य समस्या जैसे-जैसे गंभीर रूप पकड़ती गई, वैसे २ मुनिजी का ध्यान भी कृषि, अन्न उत्पादन, शरीरश्रम और स्वावलंबन की ओर अधिकाधिक होता गया और उनके मन में किसी गांव में जाकर बैठ जाने और कम से कम अपने उपयोग का अन्न स्वयं उत्पन्न करने की भावना तीव्र होती गई। इसके लिए उन्होंने अनेक गांव देखे । अंत में चित्तौड़ के पास चंदेरिया गांव उन्हें पसंद आया, क्योंकि चित्तौड़गढ के समीप रहने की हादिक इच्छा थी। वे माता की सेवा तो नहीं कर सके थे, पर मातृभूमि की सेवा अवश्य कर सकते थे। उनके मन में राणा प्रताप, भक्त मीरां और प्राचार्य हरिभद्र सरि की भूमि के प्रति बडा आकर्षण था अतः उन्होंने उस गांव में पूठौली के ठाकूर से कुछ भूमि प्राप्त कर २८ अप्रेल १९५० के दिन वहाँ सर्वोदय साधना आश्रम की स्थापना कर दी। इधर राजस्थान के एकीकरण के पश्चात् जब प्रथम लोकप्रिय मंत्रिमंडल ने शासन की बागडोर संभाली तो राजस्थान की उन्नति और समृद्धि की अनेक योजनाओं का जन्म हुआ। उन्हीं में एक योजना राजस्थान के प्राचीन हस्तलिखित साहित्य के संग्रह, संरक्षण और प्रकाशन की भी थी। मुनिजी के परामर्श से राजस्थान पूरातत्व मंदिर की योजना ने साकार स्वरूप ग्रहण किया और १३ मई १९५० के दिन इस संस्थान की स्थापना हुई और मुनिजी को इसका सम्मान्य संचालक नियुक्त किया गया। इस प्रकार अब मूनिजी की शक्ति दो कामों में लगी। एक भूमि साफ करना, खेती करना और ग्रावास के स्थान बनाना और दूसरा पुरातत्व भंडार के काम को जमाना और बढ़ाना । मुनिजी पूरे मनोयोग से इन दोनों कार्यों में जुट गये। १९५२ में मुनि जिनविजय जर्मनी की विश्वविख्यात ओरिएन्टल सोसाइटी (Deutsche Morgenlundische Cesellschaft) द्वारा उसके सम्माननीय सदस्य चुने गये। अत्यन्त अल्प संख्या के भारतीयों को यह सम्मान प्राप्त हुआ है । मुनिजी को यह सम्मान भारतीय विद्या की शोध को प्रोत्साहन देने में जो महान कार्य गत वर्षों में उन्होंने किया उसकी सराहना और मान्यता के रूप में प्राप्त हुना। मुनिजी ने उक्त सोसाइटी को तत्सम्बन्धी पत्र के उत्तर में लिखा-'मैं स्वयं को सम्मान के योग्य नहीं मानता । मेरा विश्वास है कि यह प्रतिष्ठा मुझे न व्यक्तिगत नाते मिली है न भारतीय होने के नाते, अपितु ज्ञान की भारतजर्मन सहकारिता के सदस्य होने के नाते ही प्राप्त हुई है।' १९६१ में मुनिजी को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया गया। सारे देश में, खास कर गुजरात और राजस्थान में तथा जैन समाज में, इस सम्मान पर विशेष संतोष और प्रशंसा प्रगट की गई । मुनिजी ने भारतीय विद्या और पुरातत्व की सामान्यतः और राजस्थान के पुरातत्व तथा जैन विद्या की प्राचीन सामग्री के अध्ययन, शोध और प्रकाशन का जो विशाल, मौलिक और ऐतिहासिक कार्य किया है वह सर्वदा ही सम्मान और अनुकरण के योग्य है । राजस्थान पुरातत्व मन्दिर के कार्य का प्रारम्भ जयपुर के संस्कृत कालेज में हुआ था जहां बड़ी संख्या में पुरातत्व तथा इतिहास से सम्बन्धित हस्तलिखित तथा मुद्रित ग्रन्थों का संग्रह किया गया तथा प्रकाशन-कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy