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________________ निमाड़ी भाषा और उसका क्षेत्र विस्तार जीवन और संस्कृति : किसी भी भाषा को वहां के जीवन और संस्कृति से अलग नहीं किया जा सकता और इस दृष्टि से निमाड़ में नर्मदा का महत्वपूर्ण स्थान है । जिस तरह गंगा के किनारे भारतीय सभ्यता पनपी है, उसी तरह नर्मदा को निमाड़ की संस्कृति के निर्माण का श्रेय रहा है । वह आत्मा के संगीत की तरह इसके मध्य से प्रवाहमान है। गंगा को ज्ञान का रूप माना गया है क्योंकि उसके किनारे ऋषियों ने ज्ञान की उपलब्धि की और यमुना को प्रेम का प्रतीक माना जाता है क्योंकि उसके किनारे भक्ति का संगम प्रयाग में हुआ। नर्मदा भी एक विशेष भावना का प्रतीक है-और वह है तपस्या व प्रानन्द की भावना। इसके किनारे ऋषियों ने तपस्या के द्वारा प्रानन्द की प्राप्ति की है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच में बहने के कारण यह उत्तर की यार्य व दक्षिण की द्रविड़ संस्कृति का भी सन्देश वहन करती है । १२ यहां की ऊबड़-खाबड़ जमीन के बीच में भी लहलहाने वाली खेती, अमाडी की भाजी व जूवार की रोटी से पुष्ट होने वाले जीवन और झुलसा देने वाली गरमी के बीच भी मुस्कराने वाले पलाश के फूल से मानों एक ही संदेश गूज रहा है-तपस्या का आनन्द । ___ जब मैं निमाड़ की बात सोचता हूँ तो मेरी आंखों में ऊंची-नीची घाटियों के बीच बसे छोटे-छोटे गांव, गांव से लगे जुवार-तुवर के खेतों की मस्तानी खुशबू और उन सबके बीच घुटने तक ऊंची धोती पर महज एक कुरता और अंगरखा लटकाये हुये भोले भाले किसान का चेहरा तैरने लगता है। यहाँ की उबड़-खाबड़ जमीन और उसके चेहरे में कितना साम्य रहा है । यहां की जमीन की तरह यहां का जानपद जन मटमैला-गेहुआ रंग लिये होते हैं । हल की नोक से जमीन की छाती पर उभरे हुये ढेलों की तरह उनके चेहरों पर सदियों का दुख-दर्द आसानी से पढ़ा जा सकता है। उसने इतने कष्ट सहे हैं कि कष्टों को मुस्करा कर पार कर जाना उसके संस्कारों में बिंध गया है। स्वभावतः वह अत्यन्त मेहनती और सहनशील रहा है । दुख का पहाड़ पा जाये या सुख की क्षीण रेखा, वह सदा मुस्कराता है और अकेले रह जाने पर भी अपनी राह चलना नहीं छोड़ता। जिस तरह कठोर पर्वत अपने हृदय में नदियों के उद्गम को छिपाये रहता है ऐसे ही ये ऊपर से कठोर दिखने वाले मनुष्य सदियों से अपने अन्दर लोक साहित्य की परम्परा को जिन्दा रखे हुये हैं । इनके पास समा के नहीं श्रम के गीत हैं जिन्हें ये हल चलाते व मजदूरी करते समय भी गाते आये हैं। इनके पास रंग-मंच के नहीं, वरन खुले मैदानों में जन साधारण के बीच खेलने योग्य प्रहसन हैं जिन्हें ये बिना किसी बाह्याडंबरों के भाव-प्रदर्शन और विचार-दर्शन के जरिये खेलते आये हैं। इनके पास पुस्तक की नहीं, वरन जीवन की लोक कथायें हैं जिन्हें ये पीढ़ी-दर पीढ़ी सुनाते आये हैं और हैं ऐसी लोक-कहावतें जिनमें इनके सदियों का ज्ञान व अनुभव गुथे हुये हैं। निमाड़ी भाषा और उसका स्वरूप किसी भी राष्ट्र की भाषा के दो स्वरूप होते हैं। एक राष्ट्र भाषा और दूसरा वहां के विभिन्न जनपदों में प्रचलित लोक-भाषायें । राष्ट्र भाषा समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है । राजकीय दृष्टि से १२-श्री प्राचार्य क्षिति मोहन सेन के भाषण से। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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