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________________ १७२ श्री उदयसिंह भटनागर डिंगल, डिग्गी-गल=डिगल' आदि अनेक अनुमान प्रकाशित हए५६ । इस सम्बन्ध में सबसे अन्तिम प्राविष्कार डा० मेनारिया ने डींग मारने का किया। उनका कथन है कि डिंगल की व्युत्पत्ति 'डींग मारने से' है, क्योंकि इसी भाषा में अत्युक्ति और अनुरंजनापूर्ण साहित्य मिलता है५७ । इस व्युत्पत्ति की अत्यधिक टीका होने पर डा० मेनारिया ने इस कल्पना को और आगे को खींचा और अपनी पुस्तक 'राजस्थानी भाषा और साहित्य' में 'डींग' शब्द के साथ 'ल' प्रत्यय जोड़कर उसको 'डींगल' बनाया तथा 'डिंगल' और 'डींगल' में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए 'ड' के साथ पाने वाले हस्व इ-कार और दीर्घ ई-कार की बड़ी विचित्र व्योख्या करते हुए दीर्घ ईकार का ह्रस्व इ-कार कर देने का वर्णन किया है।५८ डिंगल के विषय में मैंने एक अलग लेख प्रकाशित कर दिया है५६ और यहां ऊपर भी बतला चुका है कि यह चारण-भाट आदि राज्याश्रित कवियों के काव्य की एक भाषा शैली है। यह भी बतलाया जा चुका है कि प्राचीन द्रविड़ शब्द 'पुलवन' और राजस्थानी पड़वो-बड़वों अपने मूल में एक ही रूप और एक ही अर्थ रखते हैं।' इस प्रकार ये लोग राजस्थान में प्रार्य प्रभाव के पूर्व किसी राजकीय परम्परा से सम्बन्धित हैं । प्राचीन भीली द्रविड़ शब्द के 'पुल्वन' के समान हो 'डिंगल' शब्द भी पड़वो, वड़वों, भाट ढाढी आदि विरूद-गायक जातियों में से किसी एक जाति के लिये प्रयुक्त होता था। प्राचीन संस्कृत कोषों में इस शब्द का 'डिंगर' रूप भी मिलता है । 'डिंगर' का अर्थ मोनियर वीलियम्स ने अपने संस्कृत कोष में पृ० ४३० पर अमरसिंह, हलायुध, हेमचन्द आदि के कोषों के आधार पर धूर्त, दास, सेवक, गाने बजाने वाला दिया है। हलायुध के कोष में यह शब्द मिलता है और उसने यही अर्थ दिया है। डिंगल में ल' के स्थान पर संस्कृत कोष में 'र' का प्रयोग ऊपर उल्लिखित उदीच्य संस्कृत की प्रवृत्ति है। अतः डिंगल और डिंगर एक ही अर्थ के द्योतक हैं और चारण-भाटों के काव्य की एक विकसित परम्परा से सम्बद्ध हैं। ऊपर हम यह भी बता चुके हैं कि राजस्थान में प्रार्य भाषा का प्रभाव प्राकृत काल में प्रारम्भ हा था। उस समय दो भाषाओं के संयोग और विलीनीकरण का कार्य चल रहा था। अनार्य शब्दों का आर्वीकरण हो रहा था। द्वितवर्ण की प्रवृत्ति इसमें प्रधान रूप से सक्रिय थी, जिसको चारण-माटों ने अपनी काव्य-भाषा में नियमित रूप से ग्रहण किया। यही प्रवृत्ति डिंगल की परम्परा में एक प्रधान विशेषता हो गई। इसी प्रकार उस काल की अन्य विशेषताएं भी इस काव्य भाषा में विशेष स्थान प्राप्त कर गई। जिससे राजस्थानी की यह भाषा-शैली विकसित हई और वीर-गाथा काव्य के लिये मान्य होकर डिंगल कहलायी। डिंगल की भाषागत विशेषताए नीचे दी जाती हैं : ५६ इन सभी प्रकार के पतों का विस्तार पूर्वक उल्लेख श्री नरोत्तमदास स्वामी ने अपने एक निबन्ध में किया जो नागरी प्रचारिणी पत्रिका के किसी अंक में प्रकाशित है-वह अंक अब अप्राप्य है। ५७ देखो-मेनारिया कृत 'राजस्थानी साहित्य की रूपरेखा' । ५८ देखो-मेनारिया कृत 'राजस्थानी भाषा और साहित्य' पृ २०-२१ ५६ देखो-हिन्दी अनुशीलन वर्ष ८, अंक ३, पृ० ६० पर मेरा लेख 'डिंगल भाषा' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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