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________________ राजस्थान भाषा पुरातत्व १५६ निषादों के पश्चात् मंगोल या किरात जाति ने ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी की ओर से भारत में प्रवेश किया । ये लोग पहले उत्तर और पूर्व में भारत की पर्वतमालाओं में फैले और धीरे धीरे पूरे उत्तर भारतमध्यप्रदेश (गंगा की उपत्यका) मध्य भारत, राजस्थान और सिन्ध में जा बसे । आज ये लोग और इनकी भाषा केवल असम और हिमालय प्रान्त में ही सीमित रह गई है। राजस्थान के किराडू (किरात कूप), लोहारू (-४) प्रादि इनकी प्राचीन बस्तियों के द्योतक हैं। किरात लोग यहाँ आकर अन्य जातियों में मिल गये और उनकी भाषा भी लुप्त हो गई। परन्तु राजस्थानी ध्वनि-संहति में किरात उच्चारण का प्रभाव अब भी कहीं कहीं दीख पड़ता है। किरात प्रवृत्ति निम्नलिखित स्थितियों में देखी जाती है: (१) समस्त राजस्थान ट-वर्गीय ध्वनियों का उच्चारण स्थान संस्कृत ट-वर्गीय ध्वनियों के समान मूर्धन्य न होकर वर्त्य है। (२) च-वर्गीय स्पर्श-संघर्षों ध्वनियों का स्थान तालव्य न होकर दन्तमूलीय है, जो भीली से सर्वथा भिन्न है। (३) सकार के स्थान पर जहाँ हकार होता है, वहाँ हकार के स्थान पर अल्प प्रकार, कहीं लोप और कहीं अनुस्वार का पागम देखा जाता है; जैसे-- (क) 'स' के स्थान पर 'ह' का लोप; रामसींग>रामींग (ख) 'स' के स्थान अल्प प्रकार सांस>हा 5, दिस>दि 5, वीस>वीs%3B भैस>भै (ग) 'स' के स्थान पर अनुस्वार, पास>पाँ २. प्रार्य प्रभाव : राजस्थान पर आर्य भाषा का प्रभाव पार्यों के आने के बहुत समय पश्चात् प्राकृत काल में प्रारम्भ हुप्रा । अतः राजस्थानी पर संस्कृत (वैदिक) का सीधा प्रभाव नहीं आया। ऐसा लगता है कि वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थों के निर्माण तक आर्य लोग राजस्थान की खोज नहीं कर पाये थे। वे इसके पश्चिम, उत्तर और पूर्व सीमाओं पर ही प्रसार कर रहे थे। ऋग्वेद की रचना के समय तो राजस्थान का अधिकतर भाग समुद्र में था। सर्वप्रथम आर्य प्रभाव उत्तर-पूर्वी राजस्थान में मत्स्य प्रदेश (प्राधुनिक जयपुर का एक भाग) में मध्य प्रदेश के सूरसेन प्रदेश से सम्पर्क स्थापित होने पर वहाँ की बोली का पड़ा । यह उस समय की प्राकृत (शौरसेनी) थी। आर्यों का मुख्य प्रसार आर्यवर्त (गन्धार से लेकर विदेह तक) में हुआ, जिसमें ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार आर्य भाषा के तीन मोटे रूप थे-(१) उदीच्य (२) मध्य और (३) प्राच्य । इनके भीतर राजस्थान की कोई स्थिति नहीं है । इस वैदिक संस्कृत के आगे चल कर तीन प्राकृत रूप हुए-(१) उदीच्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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