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________________ महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १०६ विलासवती ने महाभारत के इस कथन को सुन रखा था कि-'सन्तानहीन जनों को मुत्यु के पश्चात् पुण्य लोक नहीं मिलता, क्योंकि पुत्र ही अपने माता-पिता की 'पुम्' नामक नरक से रक्षा करता है।'' तिलकमञ्जरी में-अयोध्या के राजा मेघवाहन और उनकी पत्नी मदिरावती, अनपत्यता के कारण दुःखी है। इसी प्रकरण में, गुरुओं के द्वारा राजा को इस प्रकार मानो संबोधित किया गया है'हे विद्वन् ! अन्य प्रजाजनों की रक्षा से क्या लाभ, पहले 'पुम्' नामक नरक से अपनी रक्षा तो कीजिए। पुत्रोत्पत्ति के निमित्त, दोनों कथाओं में समानरूप से देवताओं की पूजा, ऋषिजनों की सपर्या, गुरूजनों की भक्ति आदि का विधान बताया गया है। तिलकमञ्जरी के, अयोध्या नगरी के बाहर उद्यान में सुशोभित शुक्रावतार नामक सिद्धायतन (जैन मन्दिर) की तुलना, कादम्बरी में उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर से की जा सकती है। भोजराज ने ल से, अपने को तिलकमञ्जरी का नायक बनाने के साथ साथ शूक्रावतार के स्थान पर 'महाकाल' यह परिवर्तन करने की इच्छा भी प्रकट की थी। कादम्बरी, जैसे लौकिक एवं दिव्य कथानक का सम्मिश्रण है उसी प्रकार तिलक मंजरी में भी लौकिक एवं अलौकिक पात्रों के कथानक का संयोजन किया गया है। विद्याधरी तिलकमञ्जरी, ज्वलजप्रभ नाम का वैमानिक, नन्दीश्वर नाम का द्वीप उसमें रतिविशाला नाम की नगरी, सुमाली नाम का देव तथा स्वयंप्रभा नाम की उसकी देवी, क्षीरसागर से निकला चन्द्रातप नाम का हार, प्रियंङ्ग सुन्दरी नाम की देवी वेताल आदि, तिलकमञ्जरी में, अलौकिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। शैली की दृष्टि से भी दोनों कथानों में पर्याप्त समानता है। प्रत्येक घटना तथा वर्णन को शब्द तथा अर्थ के विविध अलंकारों से बोझिल बनाकर कहना; जैसा कादम्बरी में वैसा ही तिलक मंजरी में । वेसे तो बाण सभी अलंकारों के प्रयोग में प्रवीण है किन्तु 'परिसंख्यालंकार' पर उनका विशेष अनुराग है। राजा शुद्रक तथा तारापीड़ के वर्णन में उनके परिसंख्यालंकार का चमत्कार देखिए–'यस्मिंश्च राजनि जित जगति परिपालयति महीं चित्रकर्मसु वर्णसङ्कराः, इतेषु के शप्रहाः ............' (शूद्रक वर्णन)--'यस्मिश्च रातनि गिरीणां विपक्षता, प्रत्ययानां परत्वम..."(तारापीड़वर्णन)। धनपाल भी परि संख्यालंकार के अत्याधिक प्रेमी हैं । मेघवाहन राजा के वर्णन में प्रयुक्त परिसंख्यालंकार कादम्बरी के उपर्युक्त परिसंख्यालंकार से अत्यन्त समानता रखता है--'यस्मिश्च राजन्यनुवर्तित शास्त्र मार्गे प्रशासति वसुमति धातूनां सोपसर्गत्वम्, इक्ष णां पीडवम्, पक्षिणां दिव्यग्रहणम्, पदानां विग्रहः तिमीनां गलग्रहः, गूढचतुर्थकानां पादाकृष्टयः, कुकविकाव्येषु यतिभ्रंशदर्शनम्, उद्घीनामवृद्धिः, निधुवनक्रीडासु तर्जनताडनानि । प्रतिपक्षक्षयोद्यतमुनि कथासु कुशास्त्रश्रवणम्, शारीणामक्षप्रसरदोषेण परस्पर बन्धव्यधमारणानि, वैशेषिक मते द्रव्यप्राधान्यं गुणानामुपसर्जनभावो बभूव ।' (तिलक. पराग पृ० ६७-६८) १-प्रपुत्राणां किल न सन्ति लोकाः शुभाः पुन्नाम्नो नरकात त्रायत इति पुत्रः' - -कादम्बरी-अनपत्यता विषाद प्रकरण । २–'अखिलमपि तत्प्रायेणं जीवलोकसुखमनुबभूव, केवलमात्मजाङ्गपरिष्वङ्ग निर्वृति नाध्यगच्छत्' 'विद्वन् ! किम परस्त्रातः, प्रात्मानं त्रायस्व पूनाम्नो नरकात् ।' -तिलकमंजरी मेघवाहन राज प्रकरण पृ० ७०-८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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