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________________ डॉ० हरीश जगज्जननी सीता जैसी महिमामयी नारी को जन्म देने का श्रेय प्राप्त है । मैथिल कोकिल विद्यापति इसी पुण्यशीला घरती के प्राणवान कवि थे । ६२ विद्यापति को लेकर हिन्दी साहित्य के अनेक विद्वानों ने अनेक प्रश्न खड़े किए हैं, जिनमें कई महत्वपूर्ण ज्ञातव्य उनकी जन्म भूमि, समय, स्थान यादि बातों के विषय में हैं । महाकवि कालिदास की भांति मैथिल कोकिल विद्यापति भी एक ही साथ कई प्रदेशों के कवि माने जाते रहे हैं । जैसे बंगाल वाले उन्हें अपना कवि मानते हैं और मिथिला वाले अपना । परन्तु जन श्रुतियों से परे हटकर अन्तर्साक्ष्य और बहिर्साक्ष्य को दृष्टि में रखकर सोचने वाले कई विद्वानों ने उनके जीवन के सूत्रों पर विचार किया है और अब यह बात कई विद्वानों ने उनके जीवन के सूत्रों पर विचार किया है और अब यह बात अत्यन्त निभ्रांति हो गई है कि वे बंगाली न होकर मैथिल ब्राह्मण थे । जहां तक विद्यापति के ज्ञान, विद्या, और प्रतिभा का प्रश्न है यह बात प्रसंदिग्ध है कि उन्हें अपने जीवन में ही अनेक बार अभूतपूर्व सम्मान मिले तथा उन्हें अभिनव जयदेव, महाराज, पंडित, सुकवि कंठहार, राज पडित, खेलन कवि, सरस कवि, नव कवि शेखर, कविवर, सुकवि जैसे विरुद प्राप्त हुए । इन उपाधियों से स्पष्ट है कि वे अपने समय के उदग्र प्रतिभा सम्पन्न और ख्याति लब्ध कवि थे । श्रपने काव्य के लिए विद्यापति स्वयं इतने प्राश्वस्त थे कि उसका अनुमान विद्वान इस चतुष्पदी से लगा सकते हैं - बालचंद विज्जावइ मासा दुहु नहीं लागइ दुज्जन हासा श्री पर मेसुर हर सिर सौहाई ईच्चिई पायर मन मोहइ उक्त चतुष्पदी से स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी केशवदास की भांति उन्होंने लोकभाषा को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा । अपने काव्यों की भाषा पर उन्हें स्वयं बहुत गर्व था । अपने जीवन काल में विद्यापति ने बारह कृतियों की रचना की । ये कृतियां हैं-भू परिक्रमा, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, विभागसार, शैव सर्वस्वसार, गंगा वाक्यावली, दुर्गा भक्ति तरंगिणी, दान वाक्यावली, गयापत्तनक, वर्षकृत्य पाण्डव विजय आदि । उनकी कीर्तिलता अपभ्रंश में और कर्तिपताका अपभ्रंश और संस्कृत दोनों में विरचित हैं तथा विद्यापति पदावली मैथिल भाषा में। अपनी पदावली में उन्होंने जो गीत लिखे हैं, कहते हैं उनके माधुर्य पर गद्गद् हो चैतन्य उन्हें गाते गाते मूर्च्छित हो जाते थे । गीति तत्वों की दृष्टि से भी विद्यापति की पदावली स्वयं में एक दिव्य कृति है । गीति काव्य में व्यक्ति तत्त्व, गेयता, संक्षिप्ता प्रेम की उत्कटता, अभिव्यक्ति की तीव्रता, भावोन्माद तथा श्राशा निराशा की धारा अबाध गति से प्रवाहमान रहती है साथ ही कवि की विषयानुभूति एवं व्यापार एवं उसके सूक्ष्म हृदयोदुगार उसके काव्य में संगीत के अपूर्व मार्दव में व्यक्त होते हैं । विद्यापति के काव्य में व्यक्तिगत विचार नहीं के बराबर हैं परन्तु उसमें गीत काव्य के उक्त सभी गुणों के साथ भावोन्माद की प्रचण्ड धारा वर्षाकालीन तीव्र शैवालिनी के वेग से किसी भी प्रकार कम नहीं है । राधा कृष्ण तथा उनकी अनेक लीलाएं ही उनकी पदावली के विषय हैं। उनके काव्य में श्रृंगार का प्रस्फुटन स्फुट रूप में मिलता है । शृंगारिक पदों में अनुभूति की तीव्रता गेयता से समन्वय कर उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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