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________________ प्रो० डॉ. एल. डी. जोशी हुई थी। ढेबर के कार्य में गलालेंग का मुख्य हाथ रहा होने से और कडाणा के प्राक्रमण में वीरगति को प्राप्त होने के दरमियान साजै साँदरवार्ड की दो राजकूमारियों से शादी करने आदि अनेक प्रसंगों के आधार पर गलालसिंह की आयु (वि० १७३०-१७५१) निश्चित की है और डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मणसिंह जी ने इसका समर्थन भी किया है। २१ साल की भरी जवानी की प्रायू में खेत रहने वाले इस गलालसिंह की संक्षिप्त परंतु शौर्यभरी कथा रोमांटिक तथा अति करुण है। "भाइय-भाइयें नो वकरो लागो ने सोड्या पूरब देते जियें" आपसी बंटवारे को लेकर कुटुम्ब में कलह और परिणामस्वरूप कुहराम मचा। मातृभक्त गलालेंग ने माँ से पूछा-'मां जणेता ओकम करो मुभाइयँ नो गालु धारणए जियँ । पिता लालसिंह का स्वर्गवास हो चुका था। विधवा माँ की आज्ञा पर गलालसिंह चलता था। माँ ने अन्यत्र जाकर अजीविका प्राप्त कर पुरुषार्थ और पराक्रम आजमाने की आज्ञा दी। फलतः अनुज गुमानसिंह तथा चचेरेभाई वखतसिंह व कुछ सेवकों सहित पूरब देश छोड़ कर गलालेंग चित्तौड़ आ पहुचा । "ऊँटे उसाला गाड़े तंबुड़ा कॅय राणिये नि सकवाले जिय पुरबा थका खड़या गलालेंग फॅच बाँका सितोड माते जियें।" उस समय महाराणा का मुकाम उदयपुर था अतः उछाला लिये हुए वह उदयपुर आया। उसके तेज व रौब को देखकर राणा ने उसे २५ हजार का पट्टा देकर रख लिया और खैराड़ में मैड़ी बनाकर रहने की सलाह दी। खैराड़ के इलाके में पानी की कमी थी। एक बार सूअर की गोठ खाते वक्त गलालसिंह ने राणा से इसका जिक्र किया और मेवल का नाका बाँधने की आज्ञा प्राप्त करली । तलवाड़ा के सलाट बुलाये गये, मालवा से प्रौढ़ लाये गये और लोहारिया के लोहे व बरोडा खान के पत्थरों से ढेबर पक्का बंधवाया गया। तीन दिन का काम बाकी था कि गलालेंग ने औड़ों से डेराडीट एक मेवाड़ी रुपया सरकारी तंबु रफू कराने वसूल करना चाहा । इस पर झगड़ा हुमा 'रि नु झालु कुवोर गलालेंग प्रो. नो गाल्यो धारण जिय' कुछ पौड़ भाग निकले और महाराणा जयसिंह को हकीकत कही। जयसमुद्र की यह घटना कलंकरूप थी अतः राणा ने गलालंग को मेवाड़ की सरहद छोड़कर चले जाने का फर्मान किया। स्वाभिमानी गलालेंग ने पुनः उछाला भरा और सलुबर, जैताना होता हुआ वह सोम नदी पर आ गया । सलुम्बर में उस समय रावजी भैरुसिंह जी का शासन था-उन्होंने गलाल को रोकना चाहा पर वह नहीं माना । सोमनदी का पानी जयसमुद्र के प्रोटे से प्राता है। इस काले पानी को देखकर वह कहता है काले काले निर नदिन भाइ केय थक पावें जिय' वक्ता उत्तर देता है- 'राज नं बंदाव्य ढेबरियं दादा एयँ थर्फ पावें जियें' इस पानी को पीना हराम करके डूगरपुर की सरहद में नये बीड़े खोद कर मुह में पानी डाला पोर पासपुर की धोली वाव पर आकर पड़ाव डाला । गलालेंग को आत्म विश्वास था कि "पापड़ी तरवारे तेज प्रोवें तो प्रापे ब्रमणा पटा करें जिमें" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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