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________________ जैनधर्म और उसके सिद्धान्त जैन पुरातत्व से भी अनेक ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते हैं जो धर्म की प्राचीनता पर प्रकाश डालते हैं । यद्यपि मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त मुर्तियों के संबंध में अभी तक निश्चय रूप से नहीं कहा जा सका है कि वे जिन हैं या शिव; किन्नु कालीबंगा के उत्खनन से यह रहस्य स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में भी जैनधर्म का प्रचार उत्तर-पश्चिम भारत में रहा है। उपलब्ध जैन मूर्तियां ई० पू० ३०० तक प्राचीन कही जाती हैं। मौर्यकालीन कुछ-मूर्तियां पटना संग्रहालय में सुरक्षित हैं।२७ इसी प्रकार लगभग प्रथम ई० पू० से जैन चित्रकला के स्पष्ट निदर्शन मिलने लगते हैं। पुरातन शिलालिपि में वीर नि० ८४ का सर्वप्राचीन संवत् सूचक लेख मिलता है। मथुरा के जैनलेख तो अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं जिनके आधार पर डा० हर्मन जेकोबी ने जैनागमों की प्राचीनता सिद्ध की है।२६ संसार की प्राचीन लिपि एवं कला की भांति श्रमण संस्कृति एवं कला में सूक्ष्म भावों का अंकन करने के लिए प्रतीक शैली की परम्परा प्रचलित रही है। मति निर्माण में, चैत्य या मन्दिरों की रचना में, सिद्ध-यंत्रों तथा चित्रों की कला में यह प्रतीक शैली अन्तयं रहस्यमय रूप से अभिव्यक्त हई है। यही नहीं, जैन-साहित्य में भी यह परम्परा सुरक्षित है। यदि इसका भलीभांति अध्ययन किया जाये तो इसकी प्राचीनता के अन्य प्रमाण भी स्पष्ट रूप से मिल सकते हैं। शिलालेखों से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर अब तीर्थङ्कर नेमिनाथ की ऐतिहासिकता भी निश्चित हो गई है। क्योंकि प्रभास-पटन का एक प्राचीन ताम्र-पत्र प्राप्त हुआ है जिसका अनुवाद डा० प्राणनाथ विद्यालंकार ने किया है। उससे बेबीलोन के राजा नेवचन्दनेजर के द्वारा सौराष्ट्र के गिरिनार पर्वत पर स्थित नेमि मन्दिर के जीर्णोद्वार का उल्लेख है। बेबीलोन के राजा नेवुचन्दजर ने प्रथम का समय ११४० ई० पू० और द्वितीय का ६०४-५६१ ई० पू० के लगभग कहा जाता है। उस राजा ने अपने देश की उस प्राय को जो उसे नाविकों से कर द्वारा प्राप्त होती थी, वह जूनागढ़ के गिरिनार पर्वत पर स्थित अरिष्टनेमि की पजा के लिए प्रदान की थी।२६ इसी प्रकार अन्य बौद्ध यात्रियों के उल्लेखों से भी जैनधर्म की प्राचीनता पर प्रकाश पडता है। यनान और मिश्र के दार्शनिकों ने भी श्रमण सन्तों का उल्लेख किया है और उनका प्रभाव स्वीकार किया है। जैनधर्म के मुख्य चार सिद्धान्त कहे जा सकते हैं-अहिंसा, प्रात्मा का अस्तित्व एवं पुनर्जन्म, कर्म तथा स्याद्वाद। अहिंसा एक व्यापक तथा सर्वमान्य सिद्धान्त है। जैनधर्म का यह मूलभूत सिद्धान्त है- 'अहिंसा परमो धर्मः, यतो धर्मस्ततो जयः" । श्रमण संस्कृति का यह प्राण-तत्व है। इसमें व्यक्ति और समाज की संजीवनी शक्ति निहित है। वस्तुतः मानव का मूल धर्म अहिंसा है। अहिंसा व्यक्ति की भीरता. शिथिलता या समाज के भय का परिणाम न होकर मोह की अनासक्ति और सच्चरित्र एवं शील की राष्ट्रव्यापिनी शक्ति है जो प्रेम और शान्ति को जन्म देती है। जिससे करुणा तथा दया का संचार होता है। और जो समाज कल्याण के लिए अमोघ शक्ति है। इसलिए अहिंसा हमें कायर और डरपोक नहीं बनाती । वह हमें मोह और क्षुद्र स्वार्थों को जीतने के लिए प्रेरित तथा उत्साहित करती है। उसमें २७ मुनि कान्तिसागर : श्रमण संस्कृति और कला १६५२१ पृ. २४ । २८ वही, पृ० ८० । देखिए "अनेकान्त" वर्ष ११, किरण १ में प्रकाशित बाबू जयभगवान, बी० ए० एडवोकेट का मोहनजोदडोकालीन और आधुनिक जैन संस्कृति शीर्षक लेख, प०४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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