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________________ जैनधर्म और उसके सिद्धांत ४३ संस्कृति का प्रचार करने वाले अधिकतर श्रमण साधु और बौद्ध भिक्षु थे। मैगस्थनीज ने अपनी भारतयात्रा के समय में दो प्रकार के दार्शनिकों का उल्लेख किया है। ब्राह्मण और श्रमण उस युग के प्रमुख दार्शनिक थे।१३ उस युग में श्रमणों को बहुत आदर दिया जाता था। कालब्रक ने जैन सम्प्रदाय पर विचार करते हए मैगस्थनीज द्वारा उल्लिखित श्रमण सम्बन्धी अनुच्छेद को उद्धृत किया है और बताया है कि जिन और बुद्ध के धार्मिक सिद्धान्तों की तुलना में अन्धविश्वासी हिन्दू लोगों का धर्म और संस्थान आधुनिक है । १४ मैगस्थनीज ने श्रमणों के सम्बन्ध में जो विवरण दिया है उसमें कहा गया है कि वे वन में रहते थे। सभी प्रकार के व्यसनों से अलग थे। राजा लोग उनको बहुत मानते थे और देवता की भांति उनकी स्तुति एवं पूजा करते थे । १५ रामायण में उल्लिखित श्रमणों से भी इसकी पुष्टि हो जाती है। टीकाकार भूषण ने श्रमणों को दिगम्बर कहा है ।१६ सम्भव है कि उस समय दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों प्रकार के साधु रहते हों और वस्त्र के रूप में वल्कल परिधानों को धारण करते हों, जैसा कि मंगस्थनीज लिखा है । ब्राह्मण साहित्य में भी श्रमणों का उल्लेख मिलता है ।१७ किन्तु इस पर अधिकतर विद्वान मौन हैं। रामायण की टीका में जिन वातवसन मुनियों का उल्लेख किया गया है वे ऋग्वेद में वणित वातरशन मुनि ही ज्ञात होते हैं । उनका विवरण उक्त वर्णन से मेल भी खाता है । १८ केशी मुनि भी वातरशन की श्रेणी के थे।१६ वातरशन मुनि उत्कृष्ट कोटि के मुनि थे जो निर्ग्रन्थ साधु थे। ज्ञान, ध्यान और तप में वे सबसे बड़े माने जाते थे। श्री बाहुबलि ने भी इसी प्रकार की तपश्चर्या की थी। तप ही इनकी एक मात्र चर्या रह जाती थी। ब्राह्मण साहित्य में-मुख्य रूप से तैत्तिरीय प्रारण्यक में इनका विस्तृत उल्लेख मिलता है । कई स्थलों पर इनकी स्तुति की गई है ।२° इस प्रकार जैनधर्म आहत और श्रमण नाम से प्राचीन काल में प्रचलित रहा है । अर्हन के उपासक प्रार्हत कहे गये हैं जो आगे चलकर जिन के अनुयायी जैन हो गये। किन्तु यह श्रमण शब्द बराबर प्रचलित रहा है और महावीर को श्रमण होते देख कर बुद्ध को मानने वाले गौतमबुद्ध को "महा १३ एन्शियेन्ट इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाय मैगस्थनीज एण्ड एरियन, कलकत्ता, १६२६, १४ वही, पृ० १०१-१०२।। पृ० ६७-६८ । १५ ट्रान्सलेशन प्राव द फ्रेग्मेन्ट्स प्राव द इण्डिका प्राव मेगस्थनीज, बान, १८४६, पृ० १०५॥ १६ “नाथवन्तः" दासा : शूद्रादय इति यावत् श्रमणाः दिगम्बरा: "श्रमणा वातावसना" इति निघण्टुः । यद्धा "चतुर्थमाश्रमं प्राप्ता : श्रमणा नाम ते स्मृता :" इति स्मृतिः "। -गोविन्दराजीय रामायणभूषण । १७ श०१४।७।११२२, तैपा० २१७११ १८ "वातरशना: वातारशनस्य पुत्राः मुनयः अतीन्द्रियार्थदशिनो जूतिवातजूतिप्रभृतय : पिशंगा . पिशंगानि कपिलवर्णानि मला मलिनानि वल्कलरूपाणि वासांसि वसते आच्छादयन्ति ।" १६ वहीं, १०।१३५१७ -सायण भाष्य,१०११३६।२ २० तैया० १।२१।३, २३।२, २४।४, ३१।२७. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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