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________________ श्री जुगलकिशोर मुख्नार 'युगवीर' ३३ मनुष्य भी यदि मरण के समय उस धर्म की विराधना कर बैठता है तो वह अनन्त संसारी तक-अनन्त कालपर्यन्त संसार भ्रमरण करने वाला हो जाता है सुचिरमपिनिरदिचारं विहिरित्ता पाण-दंसरण-चरिते। मरणे विराधयित्ता प्रणंतसंसारिनो दिट्रो ।। १५ ।। इन सब बातों से स्पष्ट है कि अन्त समय में धर्म-परिणामों की सावधानी न रखने से यदि मरण बिगड़ जाता है तो प्रायः सारे ही किये कराये पर पानी फिर जाता है। इसी से अन्त समय में परिणामों को संभालने के लिए बहुत बड़ी सावधानी रखने की जरूरत है और इसी से उक्त कारिका के उत्तरार्द्ध 'तस्माद्योवद्विभवं समाधि मरणे प्रयतितव्यम्' में इस बात पर जोर दिया गया है कि जितनी भी अपनी शक्ति हो, उसके अनुसार समाधिपूर्वक मरण का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। इन्हीं सब बातों को लेकर जैन-समाज में समाधिपूर्वक मरण को विशेष महत्व प्राप्त है। उसक। नित्य की पूजा-प्रार्थनाओं आदि में 'दुक्खखनो कम्म-खम्रो समाहि मरणं च बोहिलाहो वि' जैसे वाक्यों-द्वारा समाधि मरण की बराबर भावना की जाती है, और भगवती-आराधना जैसे कितने ही ग्रन्थ उस विषय की महती चर्चाओं एवं मरण-सम्बन्धी सावधानता की प्रक्रियायों से भरे पड़े हैं। लोक में भी 'अन्तसमा सो समा' अन्तमता सो मता, और 'अन्त भला सो भला' जैसे वाक्यों के द्वारा इसी अन्त-क्रिया के महत्व को ख्यापित किया जाता है । यह क्रिया गृहस्थ तथा मुनि दोनों के लिए विहित एवं निर्दिष्ट है। ऐसी स्थिति में जो मरणासन्न है, जिसने सल्लेखनात्मक संन्यास लिया है अथवा समाधिपूर्वक मरण का संकल्प किया है उसके परिणामों को ऊँचा उठाने की-गिरने न देने की-बड़ी जरूरत होती है; क्योंकि अनादि, अविद्या तथा मोहममतादिक के संस्कार-वश और रोगादि-जन्य वेदना के असह्य होने पर बहुधा परिणामों में गिरावट आ जाती है, परिणामों की प्रात-रौद्रादिरूप परिणति होकर संक्लेशता बढ़ जाती है और उससे मरण बिगड़ जाता है। अतः सुन्दर, सुमधुर तात्त्विक वचनों के द्वारा उसके प्रात्मा में भेद-विज्ञान को जगाने की जरूरत है, जिससे वह अपने को देह से भिन्न अनुभव करता हुआ देह के छूटने को अपना मरण न समझे, रोगादिक को देहाश्रित समझे और देह के साथ जिनका सम्बन्ध है, उन मब स्त्री-पुत्र-कुटुम्बादिको 'पर' एवं अवश्य ही वियोग को प्राप्त होने वाले तथा साथ न जाने वाले समझकर उनसे मोह-ममता का त्याग कर चित्त में शान्ति धारण करे ; उसके सामने दूसरों के ऐसे भारी दु:खकष्टों के और उनके अडोल रहकर समताभाव धारण करने तथा फलतः सद्गति प्राप्त करने के उदाहरण भी रखने चाहिए, जिससे वह अपने दुःख कष्टों को अपेक्षाकृत बहुत कम समझे और व्यर्थ ही प्राकुलव्याकुल न होकर हृदय में बल तथा उत्साह की उदीरणा करने में समर्थ होवे । साथ ही इस देह के छूटने से मेरी कोई हानि नहीं ; यह तो चोला बदलना मात्र है, पुराने जीर्ण अथवा रोगादि से पीड़ित शरीर के स्थान पर धर्म के प्रताप से नया सुन्दर शरीर प्राप्त होगा, जिससे विशेष धर्म-साधना भी बन सकेगी, ऐसी भावना भाता हुआ मरण को उत्सव के रूप में परिणत कर देवे। इसी उद्देश्य को लेकर 'मृत्यु-महोत्सव और 'समाधिमरणोत्साह दीपक' आदि अनेक प्रकरण-ग्रन्थों की रचना हुई है। अस्तु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012033
Book TitleJinvijay Muni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJinvijayji Samman Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages462
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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