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________________ ANSIRONS HOREOGRAOKEOG आँखों देखा यथार्थ ___ कपट या असत्य किसी भी कोने में दृष्टिगोचर नहीं होता है। किसी के प्रति द्वष या रोष तो आप को IDA -साध्वी रुचिका छआ तक नहीं है। महापुरुषों से मिलना और (परम विदुषी श्री चारित्रप्रभा जी म. सा. की शिष्या) उनके सद्गुणों को अपने जीवन में लाना आपका ON प्रथम कार्य है। एक संस्कृत कवि ने कहा है : २. वाणी में मधुरता :हे पथिक ! कुमुद वन की सुषमा और सौरभ का वर्णन तुम क्यों करते हो? उसका वर्णन तो आपश्री की वाणी में मधुरता अपना विशिष्ट म वहाँ फूलों पर सतत मंडराते हुए, रसपान करते स्थान लिये हुए है। आपकी वाणी से वृद्ध अपने I हुए भ्रमर स्वयं ही मस्त गजारव के मिष निरन्तर __ बच्चों का सा सुख पाते हैं, युवा अपने हम उम्र में करते ही रहते हैं । हाँ तुम तो सिर्फ उनकी गुञ्जन जैसा स्नेह लूटते हैं। बच्चे माँ जैसा वात्सल्य - की भाषा सुनो, समझो। प्राप्त करते हैं । आपको प्रवचन शैली से तो जनता किसी व्यक्ति के विषय में जानना, समझना हो गद्गद् हो उठती है । एक-एक विषय को बड़े सरल - ढंग से इस प्रकार समझाती हैं कि अनपढ़ व्यक्ति तो उसके परिचित, निकट सम्बन्धी और उसके सान्निध्य में रहे हुए व्यक्तियों की बात सुनो, वे ही भी उसे सहज में समझ ले । गायन शैली तो अत्याउसके व्यक्तित्व का यथार्थ स्वरूप बतायेंगे और वही कर्षक है । कोयल-सी सुमधुर आवाज श्रोतागणों को उसका यथार्थ परिचय होगा। मंत्र मुग्ध कर लेती है। 'कसम' वन की सषमा एवं सौरभ का परिचय ३. साम्यता :GAR देने वाले भ्रमर समूह में से एक मैं भी आप (गुरुणी ६ नवम्बर, सन् १९८६ से मैं गरुणी जी श्री जी श्री कुसुमवती जी म. सा.) के अथाह गुण समुद्र कुसुमवती जी म. सा. की सेवा में रहने लगी। में से कुछ एक बूंदें आपके ही चरणों में समर्पित ३० अप्रैल १६८० में मैंने आपकी ज्येष्ठ शिष्या श्री । करना चा आपका जीवन परिचय तो इस चारित्रप्रभा जी म. सा. के चरणों में प्रव्रज्या अभिनन्दन ग्रन्थ में अनेक लेखकों ने दिया होगा। अंगीकार की। तब से आज दिन तक एक बार भी मैं तो सिर्फ आँखों देखा यथार्थ ही कहेंगी। आपके चेहरे पर क्रोध की रेखा तक नहीं देखी । ब मैं आपकी तृतीय पोत्र शिष्या है। आपके आपके सामने बाल, वृद्ध अथवा युवा कोई भी किसी || चरणों में रहकर जो मैंने देखा, जो अनुभव किया, म भी समय आ जाये सदा कुसुमवत् मुस्कुराते हुए ४) उसको प्रस्तुत करना चाहेंगी। वैसे तो आपके गण ही दर्शन देते हैं। चेहरे की सौम्यता कैसी भी परि अनन्त हैं। उनका वर्णन करने के लिये एक ग्रन्थ स्थिति में किसी भी घड़ी या पल में कम नहीं तो क्या ? अनेक ग्रन्थ तैयार हो जायें तो भी आपके होती । अस्वस्थता होने पर भी चेहरा खिला हुआ सदगुणों का पूर्णतया वर्णन नहीं हो सकता फिर भी हो रहता है। मैं अपनी नन्ही-सी लेखनी से एक बच्चे के समान किसी ने आपका नाम बहुत सोच समझकर कर टूटे-फूटे शब्दों में करने का प्रयास करूंगी। दिया और आपने अपने नाम को खूब सार्थकता दी है। कुममवती अर्थात् कुसुमवत्-कुसुम (फूल) के स्वभाव में सरलता: समान । वास्तव में आप फूल के समान ही अपनी आपश्री के स्वभाव में जो सरलता मैंने देखी सौरभ फैला रही हैं, फूल के समान ही खिली हुई है, वैसी सरलता अन्यत्र दुर्लभ है । जीवन में छल, रहती हैं और फूल के समान ही स्वयं के सुख की LARAAVAN प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना Cexe साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International or Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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