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________________ एयं खु णाणिणो सारं जं न हिंसइ कंचणं । 'जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेण वायाए काएणं अहिंसा समयं चेव एतावंत विजाणिया ॥ न करेमि न करावेमि करतंपि न समणुजाणामि' अर्थात्-बुद्धिमान सब युक्तियों द्वारा जीव का प्रस्तुत उक्ति में ३ योग-मन, वचन और काय जीवपन सिद्ध करके यह जाने कि सब जीव दृख के एवं ३ करण-करना, करवाना एवं अनुमोदन । द्वेषी (जिन्हें दुख अप्रिय है) हैं तथा इसी कारण करना-की चर्चा है और कहा गया है कि मैं इनमें 5 किसी की भी हिंसा नहीं करे। ज्ञानी पुरुषों का से किसी के द्वारा किसी की भी हिंसा नहीं करूं। यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा इन ३ योग और ३ करण के संयोग से ह योग-करण नहीं करते। स्थितियाँ बनती हैं, जो निम्नानुसार हैं____ 'सूत्रकृतांग' का उक्तांश अहिंसाव्रत-पालन की (क) मन से-(१) हिंसा न करना (२) हिंसा दिशा में निश्चित मार्गदर्शन देता है । अहिंसा का नहीं करवाना (३) हिंसा का अनुमोदन नहीं हु आचरण करने वाला बुद्धिमान व्यक्ति ही यथार्थ में करना । बुद्धिमान होता है । ऐसे बुद्धिमान के लिए अपेक्षित (ख) वचन से-(४) हिंसा न करना (५) हिंसा है कि _ नहीं करवाना (६) हिंसा का अनुमोदन नहीं है -सर्वप्रथम तो वह सभी जीवों के समत्व को करना । स्वीकारे और इस आधार पर बिना किसी (ग) काय से - (७) हिंसा न करना (८) हिंसा प्रकार का भेद करते हुए सभी जीवों को ' नहीं करवाना (8) हिंसा का अनुमोदन नहीं करना। समान रूप से महत्वपूर्ण समझे। ये ६ मार्ग हैं, जिनमें से किसी का भी अनुसरण -उसके लिए यह तथ्य हृदयंगम करना भी करने से व्यक्ति हिंसा का आचरण कर लेता है। आवश्यक है कि सभी प्राणी सुख की कामना इनसे बचकर ही कोई पूर्ण अहिंसा का पालन कर करते हैं और दुःख सभी के लिए अप्रिय होता है। सकता है। हिंसा की अति सूक्ष्मतम अवस्थाओं को भी जैनानार ने अनुपयुक्त माना है। किसी - इन बातों को भली-भाँति समझकर उसे अन्य जन द्वारा की गई हिंसा के प्रति यदि कोई (बुद्धिमान को) किसो भी जीव की हिंसा व्यक्ति केवल समर्थन का भाव भी रखता नहीं करनी चाहिए। है-चाहे उसे वह व्यक्त न भी करे-तो भी यह ॥ 'तिविहेण वि पाण मा हणे, आयहिते अनियाण संबुडे ।' समर्थक व्यक्ति द्वारा की गई हिंसा होगी । जैन धर्म सूत्रकृतांग के प्रस्तुत अंश में अहिंसा की व्याख्या अहिंसा का इस गहनता के साथ पालन किये जाने और भी सूक्ष्मता के साथ हई है, जिसमें व्यक्त पर बल देता है । डा० वशिष्ट नारायण सिन्हा ने किया गया है कि मन, वचन और काया इन तीनों इस स्वरूप को जैन दृष्टि से अहिंसा का वास्तविक से किसी भी प्राणी को नहीं मारना चाहिए। इस और समग्र स्वरूप स्वीकारा है। मान्यता को और भी समग्रता की ओर ले जाने की हिंसा : निषेधमूलक भी और विधिमूलक भी दृष्टि से इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि -- भाषा-शास्त्रीय दृष्टि से 'अहिंसा' शब्द रचना। कृत, कारित, अनुमोदित-मनसा, वाचा, कर्मणा से निषेधात्मक विचार प्रकट होता है। अर्थात्प्राणिमात्र को कष्ट न पहुँचाना ही पूर्ण अहिसा है। हिंसा का न करना हो अहिंसा है। स्पष्ट है कि इसी आशय का प्रतिबिम्ब 'आवश्यक सूत्र' में भी किसी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट अथवा मिलता है हानि पहुँचाना हिंसा है और ऐसे कृत्यों का परि . ND ५७० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट o साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ donic भिनन्दन ग्रन्थ Tec iated Jain E lion International OPBatè & Personal Use Only जाwww.jainelibrary
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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