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________________ की अनुपम काव्य-परम्परा का सूत्रपात करने का विद्वानों, साहित्यकारों में प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा का श्रेय, सिद्धर्षि की 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' को प्रश्न, इन दो में से एक भाषा के चयन, निश्चय पर ३ जाता है। पश्चात्, 'प्रबोधचिन्तामणि' (जयशेखर निर्भर करने लगा था। भाषा के चयन का लक्ष्य सूरि) से लेकर अब तक के समस्त रूपक-ग्रन्थों को 'पाण्डित्य-प्रदर्शन' और 'लोकमानस के अनुरूप सिद्धर्षि की इसी कृति की परम्परा के ग्रन्थों में ग्रन्थों का प्रणयन' बन गया था। सिद्धर्षि भी इस गिना जा सकता है। युगीन स्थिति से पूर्णतः परिचित थे। उन्होंने स्वयं जैन वाङमय का कलेवर पर्याप्त-विस्तार स्वीकार किया है कि उनके ग्रंथरचना काल में वाला है । इसकी सर्जना में 'संस्कृत' और 'प्राकृत' संस्कृत और प्राकृत, दोनों ही भाषाओं को प्रधादोनों ही भाषाओं का व्यापक-प्रयोग मौलिक रूप नता प्राप्त थी। प्राकृत-भाषा यद्यपि जन साधारण में किया गया है। महावीर के समय तक, प्राकृत- के लिये बोधगम्य अवश्य थी, पर, यह विद्वानों को भाषा जनसाधारण के बोलचाल और सामान्य- अच्छी नहीं लगती थी । पण्डित वर्ग में संस्कृतभाषा व्यवहार में भी पर्याप्त-प्रतिष्ठा प्राप्त कर चकी को ही विशेष समादर प्राप्त था। वे प्राकृत-भाषा थी । सम्भवतः इसीलिए, उन्होंने अपने द्वारा अन- में बोलचाल तक करना पसन्द नहीं करते थे। भूत सत्य/तत्व का प्रतिपादन प्राकृत भाषा में सूर्य का 'प्रकाश' और 'प्रताप' जिस तरह एक किया था। उनके प्रधान-शिष्यों ने भी उक्त तत्व- साथ संयक्त रहते हैं, उसी तरह 'समाज' और ज्ञान को प्राकृत-भाषा में ही संकलित करके जन- 'संस्कृति' भी साथ-साथ संपृक्त रहते हैं। समाज साधारण की भावनाओं को महत्त्व प्रदान किया। मानव-समुदाय का बाह्य-परिवेष है तो संस्कृति महावीर और उनके शिष्यों के इस प्रयास का उसका अन्तःस्वरूप है। जिस समाज का अन्तः और परिणाम यह हुआ कि लगभग ५०० वर्षों तक बाह्य-परिवेष, भौतिकता पर आधारित होता है, निरन्तर जैन धर्म और साहित्य के क्षेत्र में प्राकृत- उसका साहित्य, आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत नहीं भाषा का व्यवहार होता रहा। हो सकता । किन्तु जिस समाज का अन्तःस्वरूप ___ महावीर के इस भाषा-प्रस्थान में, संस्कृत के आध्यात्मिक हो, उसका बाह्य स्वरूप यदि भौतिप्रति किसी प्रकार का कोई विद्वष भाव नहीं था। कता में लिप्त हो जाये, तो भी उस समाज का बल्कि, तत्त्वज्ञान की प्रभावशालिता और उपयोः साहित्य, आध्यात्मिकता से अनुप्राणित हुए बिना गिता, जनसाधारण की समझ में आने वाली भाषा नहीं रह सकता। इसलिए संस्कृत साहित्य का लक्ष्य में ही निहित है, यह विचार ही प्राकृत को प्राथ- जनसाधारण तक आध्यात्मिकता का सन्देश ४ मिकता देने का मुख्य निमित्त बना। वस्तुतः यह पहुँचाना और उनमें नव-जागरण का भाव भरते वह युग था, जिसमें संस्कृत और प्राकृत की संघर्ष- रहना, हमेशा रहा है। । मयी प्रतिद्वन्द्विता, अपने उत्कर्ष पर पहुंच रही थी। सुख-दुःख, राग-विराग, मित्रता-शत्रुता के -प्रद्युम्नसूरि रचित 'समरादित्य संक्षेप' १ सिद्धि व्याख्यातुराख्यातु महिमानं हि तस्य कः । समस्त्युपमिति म यस्यानुपमिति कथा | संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावद् विदग्धहदिस्थिता ।। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा न तेषामभिभाषते । -उपमितिभवप्रपंचकथा कुसम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५५५ 000 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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