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________________ 000000000000000000000000000 क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से (पर-रूप) नहीं ही तत्व में अनेक धर्म हैं। ये धर्म हर समय, वस्तु में है। जबकि तीसरे वाक्य में 'घट' अपने द्रव्य-क्षेत्र- विद्यमान रहते हैं । जब, किसी एक अपेक्षा से वस्तु काल-भाव की और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तत्व के बोध की आवश्यकता होती है, तब भी की भी क्रमिक अपेक्षाओं से, क्रमशः 'घटरूप ही है। उसमें अन्य सारे धर्म विद्यमान रहते हैं । इन दूसरे पट आदि अन्य रूप नहीं है।' किन्तु यही दोनों धर्मों की अपेक्षाएँ वांछित अपेक्षा के साथ सम्बद्ध अपेक्षाएँ युगपत् एक साथ उत्पन्न हो जायें, तब होकर अपने उत्तर न माँगने लग जायें, यह बचाने उनका समाधान भाषा के वश के बाहर हो जाता में ही 'स्यात' शब्द के अनिवार्य प्रयोग की सार्थकता है। इसीलिए उसे 'अवक्तव्य'-'अकथनीय' ही है, निहित है । यह कहा जाता है। चतुर्थ वचन का यही आशय भारतीय दार्शनिकों ने स्याद्वाद की सापेक्षता ५ है। यहीं से यह स्पष्ट होता है कि मौलिक रूप से को सहज ही स्वीकार कर लिया है, किन्तु पश्चिमी तो प्रथम तीन ही भंगों की सार्थकता है । शेष भंगों विद्वानों ने भी इसकी उपादेयता को कम महत्व की उत्पत्ति; इन्हीं तीनों से सम्बद्ध अपेक्षाओं के नहीं दिए + नहीं दिया। सम्मिश्रण से होती है। ____ इसीलिए पश्चिमी और भारतीय कई उक्त सात कथन-वाक्यों में 'एव' शब्द का विद्वानों ने इस सिद्धान्त की स्पष्टता, सहजता और प्रयोग इसलिए किया गया है कि वाक्य का अर्थ कठिनता को भी सिद्ध करने के लिए अपनी-अपनी 'घट' का ही बोध कराये, पट आदि का नहीं । यदि लेखनियाँ उठाई हैं। हालांकि इस सिद्धान्त की EARST इस 'एव' शब्द का प्रयोग न किया जाये तो, जिस आलोचना शंकराचार्य जी ने पर्याप्त की थी। पर, तरह अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से 'घट' उनकी इस आलोचना के औचित्य पर प्रयाग विश्व के अस्तित्व का बोध होता है, उसी तरह पर द्रव्य- विद्यालय के तत्कालीन कूलपति डा० गंगानाथ झा क्षेत्र-काल-भाव को अपेक्षा की भी अवसर मिल द्वारा की गई टिप्पणी विशेष उल्लेखनीय मानी जा C) जाने से घट, अस्तित्ववान् रहते हुए भी 'पट' के सकती है। वे लिखते हैं-जब मैंने शंकराचार्य जी अस्तित्व का बोध भी होने लग जायेगा । यह अव्य- द्वारा किए गए जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा, तभी वस्था, तत्व बोध में न होने पाये; इसीलिए वाक्य- मुझे यह विश्वास हो गया था कि इस सिद्धान्त में Sil भंग में 'एव' शब्द का प्रयोग किया जाना अनिवार्य बहत कुछ (सार) होना चाहिए, जिसे वेदान्त के Milf माना गया है। ज्ञाता आचार्य ने ठीक से नहीं समझा। मैंने अब इसी प्रकार प्रत्येक वाक्य में 'स्यात्' शब्द का तक जैन-दर्शन का जो भी, जितना अध्ययन किया ERIAL प्रयोग करना भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि है, उसके आधार पर मैं यह दृढ़ विश्वासपूर्वक कहर यह 'स्यात्' शब्द एक अपेक्षा विशेष का ज्ञान सकता हूँ कि यदि शंकराचार्य महोदय ने जैन दर्शन । कराता है। के मौलिक ग्रन्थों को देखने का कष्ट किया होता, जिससे, यह ज्ञान भी होता है कि वस्तु-तत्व तो उन्हें स्याद्वाद सिद्धान्त का विरोध करने का । में और भी अपेक्षाएँ हैं। इन अनेक अपेक्षाओं अवसर न मिलता। का अहसास कराने के लिए ही 'स्यात्' शब्द की डा. झा की उक्त टिप्पणी से यह स्पष्ट ज्ञात अनिवार्य प्रयोगता रखी गई है। चूकि वस्तु- होता है कि शंकराचार्य महोदय ने स्याद्वाद के उस FRN १ तत्वार्थराजवार्तिक १/१६/५ २ जनदर्शन (साप्ताहिक) १६/६/३४ ५५० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International FOP Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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