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________________ GOX COM 6 रूप है। मनुष्य सहजतः सुखकामी होता है और के ही कुछ का कुछ हो जाने की आशंका बनी ॥ सुख की लालसा से ही वह प्रवृत्तियों की ओर रहती है। अतः प्रवृत्ति में जागरूकता और शुभ उन्मुख होता है। कुछ करने से ही कुछ प्राप्त के प्रति दृढ़ता का भाव अत्यन्त आवश्यक है । शुभ * होगा और कुछ न करने से कुछ भी प्राप्त होने को प्रवृत्ति सदैव प्रशंसनीय और हितकर रहती है। । कोई सम्भावना नहीं होगी-सामान्यतः हमारी निवृत्ति का जो गुण-गान किया जाता है वह है। ऐसी धारणा रहती है। यही कारण है कि हम भी व्यर्थ और आधारहीन नहीं है। निवृत्ति की 10 कर्म में प्रवृत्त होते हैं । साधारणजन अयथार्थ सुखों महिमा यथार्थ में अत्युच्च है। यह अन्य बात है को सच्चा सुख मानकर उन्हें प्राप्त करने के लिए कि प्रवृत्ति के प्रति जितनी सुगमता के साथ मनुष्य है। प्रवृत्ति में लगते हैं। उन्हें वे सुख (तथाकथित) आकर्षित हो जाता है उतनी सुगमता के साथ है, भले ही प्राप्त हो जायें, किन्तु उनके अन्तिम परि- निवृत्ति के प्रति नहीं हो पाता । निवृत्ति दुष्कर णाम तो दुःख ही होते हैं। अतः उन्हें वास्तविक है और अपेक्षाकृत कम आकर्षक है, किन्तु निवृत्ति सुख की प्राप्ति प्रवृत्ति से नहीं हो पाती। इसमें से प्राप्त सुख अनन्त, स्थायी और यथार्थ सुख है । दोष प्रवृत्ति का नहीं है। प्रवृत्ति का उद्देश्य यदि प्रवृत्ति का सुख, इसके विपरीत लौकिक, असार थायी, अनन्त वास्तविक सख को मानकर, तदन- और अवास्तविक सुख है, वह समाप्य सुख है। रूप कार्य किये जायें तो वैसा सुख-लाभ भी होता मनुष्य का मन्तव्य स्थायी सुख होना चाहिए और हैं ही है । अतः प्रवृत्ति को निकृष्ट कहने का कोई उसकी प्राप्ति में निवृत्ति का रूप अधिक सहायक प्रयोजन नहीं है। प्रवृत्ति भी सुखदायी होती है, रहता है। वस्तुतः प्रवृत्ति (शुभ) और निवृत्ति शर्त यही है कि उसके लिए सच्चे सख का लक्ष्य दोनों परस्पर पूरक स्थान रखती हैं। मोक्ष की निर्धारित किया जाय, उस लक्ष्य प्राप्ति के योग्य प्राप्ति में निवृत्ति का प्रमुख स्थान है, किन्तु कुछ प्रयत्न किये जायें। हां, मिथ्या और अयथार्थ कुछ सहारा शुभ प्रवृत्तियों का भी होता अवश्य || सांसारिक विषयों के लिए जो प्रवृत्ति है, वह है। मात्र किसी एक से कार्य सधता नहीं । विचा अवश्य ही निकृष्ट और हेय है । प्रवृत्ति भी सच्चे रकों की धारणा है कि मनुष्य को प्रवृत्ति मार्ग पर सख का एक मूलभूत आधार है अवश्य, किन्तु इस चलते हुए भी अपनी दृष्टि सदा निवृत्ति की ओर । सम्बन्ध में भय यह बना रहता है कि किसी भी रखनी चाहिए। चारित्र के प्रवृत्तिमूलक और समय यह शुभ की सीमा रेखा लांघकर अशुभ रूप निवृत्तिमूलक दोनों ही रूपों का प्राणाधार अहिंसा NI ग्रहण कर सकती है। अतः प्रवृत्तियों पर संयम के है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इस FI कठोर अंकुश की तीव्र आवश्यकता बनी रहती महती अहिंसा के समर्थ और सक्षम रक्षक हैं । है । विचलन से प्रवृत्तियों का रूप और इससे लक्ष्य कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट ५४७ 36. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000 Education Internatio Ser Private & Personal Use Only www.jainersery.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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