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________________ है-ऐसा मानना मिथ्या है। इस मिथ्या से मुक्त स्पष्ट ज्ञान प्राप्त कर आस्था को सुदृढ़ और मन । होकर तथा आत्मतत्त्व को पहचान कर उससे विच को निःशंक करना अनिवार्य है। यह निःशंकता लित न होना ही परम पुरुषार्थ मुक्ति की प्राप्ति का सम्यग्दर्शन का प्रथम एवं सर्वप्रमुख अंग है । शंका IC उपाय है। की अवस्था में आस्था का अटल होना संभव नहीं ट्र जैनदर्शनानुसार मुक्ति के लिए जिन तत्त्वों का होता । निर्धारण है-उन पर दृढ आस्था सम्यगदर्शन है। निष्कामता सम्यग्दर्शन का दूसरा अंग है। और उन तत्त्वों की पहचान, उनका यथोचित ज्ञान सांसारिक सुख-वैभव, विषयादि की समस्त कामही सम्यक ज्ञान है। सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शन नाओं का सर्वथा परित्याग करना भी अनिवार्य के अभाव में मोक्ष-मार्ग की यात्रा संभव नहीं है। है । अभिलाषाओं से भरा मन चंचल रहता है और यदि इस अभाव में भी कोई यात्रारम्भ कर देगा, चंचलता इष्ट मार्ग पर अग्रसर होने में व्यवधान ६ तो निश्चित रूप से वह भटक जायगा, पथच्युत हो उपस्थित करती है । कामनाओं से ग्रस्त मनुष्य का जायगा। लक्ष्य तक पहुँचना उसके लिए सम्भव लक्ष्य भी स्त्री, पुत्र, धन, ऐश्वर्यादि तक ही सीमित होगा ही नहीं। सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेने रह जाता है। वह इन्हीं विषयों में मग्न हो जाता वाला व्यक्ति 'सम्यकदृष्टि' के विशेषण से विभषित है और सर्वोपरि लक्ष्य से उसका ध्यान विचलित होता है । उसकी यह योग्यता मोक्षमार्ग से उसे न ही जाता है। ऐसी दशा में उसका मार्ग-भ्रष्ट हो भटकने देती है, न विचलित होने देती है और जाना सर्वथा स्वाभाविक ही है। अस्तु, मोक्ष के क्रमशः वह सफलता की ओर अग्रसर होता रहता अभिलाषीजन के लिए निष्काम होना अनिवार्य है। है । सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान मोक्ष-मार्गी के सम्यग्दर्शन के तीसरे अंग के अन्तर्गत मनुष्य ॥ लिए मार्गदर्शक और प्रेरक बने रहते हैं, कर्णधार के ग्लानिभाव का निषेध किया गया है । इस जगत 10 की भाँति समय-समय पर उचित दिशा का संकेत में अनेक धनहीन रंक हैं, अनेक रोगी और दुःखी करते रहते हैं, सही मार्ग पर आगे से आगे बढ़ाते हैं। सम्यग्दष्टि व्यक्ति ऐसे दीन-हीन और दुःखित रहते हैं। जनों के प्रति उपेक्षा या ग्लानि का भाव नहीं सम्यग्दर्शन के अंग रखता। मनुष्य की जो भी दशा है उसके पूर्वकर्मों विभिन्न अंगों के सामंजस्य से जैसे देह अपना के प्रतिफल के रूप में ही होती है। कर्मों के क्रम आकार ग्रहण करता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन भी परिवर्तन के साथ ही इन दशाओं में भी परिवर्तन अपने अंगों के समन्वय का ही प्रतिफल हैं । सम्यग्- हो जाता है। घृणा करने वाला स्वयं यह नहीं दर्शन के आठ अंग हैं। जैसी कि पहले ही चर्चा की जानता कि आगामी समय स्वयं उसका क्या रूप जा चुकी है, मोक्ष-मार्ग की सार्थकता और तात्त्विक बना देगा ? जो आज सम्पन्न है वह कल विपन्न भी है विवेचन पर व्यक्ति का अटल विश्वास होना हो सकता है और जो आज रोगी है वह भी कल ( चाहिये। उसके मन में कोई दुविधा नहीं रहनी स्वस्थ हो सकता है। सम्यग्दृष्टि जन व्यक्ति की चाहिये । यह मार्ग सार्थक है या नहीं, अथवा इस इन दशाओं पर नहीं, अपितु केवल उसके गुणों पर मार्ग से सफलता मिलेगी या नहीं ऐसी मानसिक ही ध्यान देते हैं। दशा मोक्ष-मार्ग की यात्रा के प्रतिकूल रहती है। सम्यग्दर्शन का चौथा अंग इस बात का संकेत अर्द्ध ज्ञान से प्रायः ऐसी मनोदशा रहती है अतः करता है कि किसी भी दशा में मनुष्य को बुरे १ विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध युपायोऽयम् ॥ ५४२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 500 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibraryo
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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