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________________ शिष्येयं शान्तवृत्ति. परमशुभगतिजनधर्मागमश्रीः, व्याख्यात्रीषु प्रसिद्धा पुनरतिसरला काऽप्यनन्या सतीषु ॥६॥ अर्थ- स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन महासती घोर तपस्विनी श्रद्धेय श्री सोहनकुवरजी जो || अब स्वर्गीय हैं, ये परम मांगलिक जैनधर्म के आगमों की शोभा, प्रसिद्ध व्याख्यात्री, अत्यन्त सरल और सतियों में बेजोड़ ही हैं। साऽसौ नाम्ना सुशीला कुसुमसुषमा राजते जैनभूमी, जानाम्येवं सुखेन प्रगुणियशसां वृन्दतोऽह सतीनाम् । तस्मादन्ते गुणानां गणमपि सहसा वक्त मस्म्येव तस्याः, सत्याः सौम्यस्वरूपं ज्ञपति तरसा भावधुर्य महत्वम् ॥७॥ अर्थ-जैनजगत् में सुशील, वही यह कुसुम नाम की परम शोभा झलक रही है, यह मैं पूज्य सतियों के मुख से ही ऐसा सुनता हूँ । इतना कहने पर भी कुछ गुणों को और कहना चाहता हूँ, जिनसे इन सतीजी का उज्ज्वल और पावन रूप शीघ्र ही समझ में आ जाता है । एतत्सत्यं प्रकृष्ट प्रथमवयसि स्यामहं शिक्षकोऽस्याः, सत्यावृत्ति विचेतु कथमपि समयं दातुमिच्छुर्भवेयम् । कालेऽज्ञास्यं महत्वं तदपि तु कठिनं मन्दबुद्धर्ममेदम्, कृत्यं जातं कठोरं स्मरति यदि मनो लज्जते मामकीनम् ।।८।। अर्थ-एक सच्ची बड़ी बात यह है कि जब ये छोटी आयु में ही थीं, इनका शिक्षक बन, इन को समझने के किसी प्रकार समय निकालकर पहुँचा । मेरी यह मूर्खता ही थी, क्योंकि मैं रीति-नीति से अपरिचित था। आगे चलकर बड़प्पन को समझा भी कि नहीं, यह तो समझने की बात है, अध्यापन के ५ समय बड़ा कठोर व्यवहार हुआ। जब कभी मैं उस कठोर व्यवहार को याद करता हूँ तो मन में बड़ा लज्जित होता हूँ। स्मृत्वा सर्वं त्वकृत्यं कथमपि वचनैर्यद्यहं वर्णयेयम्, हर्ष मत्वा सदेयं कथयति सुसती तद्धि जातं हितार्थम् । सम्प्रत्येवं महत्वं किमपि सदसि यद् वर्तते सत्फलं तते, दैन्यं मन्स्ये न चित्त न किमपि मनसेः कल्पनौचित्यमास्ते ॥६॥ अर्थ-यदि मैं स्मरण कर उस कठोर व्यवहार को कभी कहता हूँ तो हर्ष मानकर पावन सती जी कहती हैं कि वह कठोर व्यवहार तो बड़ा हितसाधक हुआ है। जो भी कुछ महत्त्व आज सभा में माना जाता है, वह सब उसकी बदौलत है । मैं तो उसको हृदय में बुरा नहीं मानती। इसलिए आपका ऐसा कहना उचित प्रतीत नहीं होता। सत्यं वचम्येव वृत्तं न हि मम मनसः कल्पनेयं नवीना, सत्यः सर्वाः प्रवीणा अपि बहुगुणिताः सन्ति सद्धेऽपि सत्यः । वैदुष्याभारनम्राः किमपि तु कथितं पालयन्त्येव वाचम्, सत्या वृत्तिं सदैताः फलयितुमनसश्चिन्तिका एव सर्वाः ॥१०॥ सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन 70 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private e Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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