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________________ श्रद्धा प्रेम वह जलधारा है जो तृषितों को तो तुष्ट कर महापुरुष की महानता, उसके लोकहितकारी करती ही है। जिस हृदय-भूमि पर होकर यात्रा |K सुकर्मों को महत्ता को व्यक्ति सानन्द स्वीकारे- करती है, उसे भी स्वच्छ व निर्मल कर देती है। यही श्रद्धा है। श्रद्धा समाज की शुभवृत्तियों की सत्यसूचक बनी रहती है । श्रद्धा के अभाव से महापुरुष सत्य स्वयं शक्ति है, इसे किसी के आश्रय की । का समादर नहीं होता, सामाजिक सद्वृत्तियों का अपेक्षा नहीं रहती है। असत्य अशक्त है, अतः ।। ह्रास होता है। श्रद्धा को प्रबल बनाकर मानवता अचल पड़ा रहता है। अपने अस्तित्व को भी सत्य । और सदादशी को कायम रखना सुगम हो जाता का छद्मरूप धारण करना पड़ता है। सत्य के वेश HR है। सत् के प्रति आस्था ही श्रद्धा का दूसरा नाम में ही मिथ्या को यत्-किंचित् काल का जीवन भी। गुजारना होता है । सत्य की ऐसी महिमा है। श्रद्धा मानव मन में अपने साथ सद्विचारों सत्य वह जिसमें सत् का निवास हो । इसलिए की सुधा और सत्कर्मों की प्रेरणा का संचार भी सत्य ईश्वर है । सत्य सदा निर्भीक होता है। उसे करती है। छिपाने की आवश्यकता नहीं रहती है। प्रेम लौ की भाँति होता है सत्य, जो न केवल प्रेम महौषधि है। वह विरोधी को हितैषी, आलोकप्रद अपितु ऊोन्मुख भी होता है। ऊपर क्रूर को सुकुमार, दुराग्रहो-कुमार्गी को सहज से ऊपर बढ़ना ही उसका स्वभाव होता है । सरिता सन्मार्गी, असुर को देवता बनाने वाली है। निराशा की भांति वह निम्न ने निम्न तल के क्रम में गतिसे भग्न हृदय को प्रेम का लेपन ही सोत्साह और शील नहीं रहता। स्वस्थ कर देता है। ___ असत्य का प्रभाव चिरकालिक नहीं होता । यह ____ शक्ति का शासन केवल शरीर तक होता है, खोटा सिक्का है, जिसे तुरन्त चलन से बाहर कर मन को नियन्त्रित एवं प्रभावित करने वाला प्रशा- दिया जाता है । सत्य का अरुणोदय होते असत्य ( सक प्रेम ही है। की भ्रामक रजनी में सर्प का भय उत्पन्न करने क्रोध की भीषण हकार जिस मनःकपाट को वाली वस्तु रस्सी की तरह निरीह और निर्जीव खोलने में विफल रह जाती है. प्रेम की पहली आकार ले लेती है। दस्तक उसे खोल देती है। अहंकार की प्रचण्ड प्रसन्नताशक्ति मन-मन्दिर पर अधिकार नहीं कर सकती मानवमात्र का श्रेष्ठतम श्रृंगार है प्रसन्नता। किन्तु प्रेम देखते ही देखते उसका स्वामी बन बैठता इस अलंकरण से जितनी शोभा और मनोरमता उसकी बढ़ती है, उतनी किसी बाह्य प्रसाधन से प्रेम वह शीतल बयार है जो जिसके हृदय में नहीं। प्रवाहित होती है उसे समस्त तापों से मुक्त कर देती प्रसन्नता ही यौवन है। इस साधन से कोई किसी भी आयु में युवा रह सकता है। अन्ततः प्रेम वह दीप्त आलोक है जो परायेपन के यौवन और प्रसन्नता दोनों ही उत्साह, स्फूर्ति और तिमिर का नाश कर सर्वत्र अपनत्व का दशन गतिशीलता के प्रदाता हैं। कराता है। (शेष पृष्ठ ५२६ पर) ५१४ सप्तम खण्ड : विचार मन्थन Ca) साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ) Jain Education International For Puvate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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